बुधवार, 21 अगस्त 2013

156. निस्पृह?



      रुपया रसातल को जा रहा है; कोलगेट के दस्तावेज गायब किये जा रहे हैं; इधर चीनी घुसपैठ बढ़ रहा है, तो उधर पाकी हमले; पब्लिक ट्रेन से कटकर मर रही है; ललनायें दुष्कर्म का शिकार हो रही हैं; नौनिहाल स्कूली भोजन खाकर काल के गाल में समा रहे हैं... और मैं कभी बारिश के पानी में कागज की कश्ती चला रहा हूँ, कभी कृष्णसुन्दरी की छायाकारी कर रहा हूँ, तो कभी मोतीझरना यात्रा का चित्रकथा लिख रहा हूँ (आज ही प्रस्तुत करने वाला हूँ)... क्या हो गया है मुझे? क्या मैं निस्पृह हो गया हूँ- देश-दुनिया-समाज से?
       ***
       दरअसल मैं सारी-की-सारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का इन्तजार कर रहा हूँ। इस सड़े-गले नासूर पर पट्टियाँ या मलहम बदल-बदल कर आजमाने का पक्षधर मैं नहीं हूँ। मुझे आज की सम्पूर्ण राजनीतिक बिरादरी पर भरोसा नहीं है- सबके-सब जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
       ***
       मैं अपने लगभग सारे विचार व्यक्त कर चुका हूँ। अब कहने को मेरे पास कुछ नहीं है। हर दुर्गति पर अफसोस जताकर, आक्रोश व्यक्त कर, आँसू बहाकर कुछ नहीं होने वाला है। मैं पहले भी कह चुका हूँ- या तो मैं सैनिकों व नागरिकों के सहयोग से डिक्टेटर बनकर खुद ही सारी व्यवस्था को ठीक कर दूँ, या फिर इस देश को अराजकता की ओर फिसलते हुए, रसातल में समाते हुए, असफल राष्ट्र बनते हुए देखता रहूँ... कोई तीसरा रास्ता मेरे पास नहीं है।
       ***
       इसे मेरी सफाई समझी जाय कि मैं अब देश-दुनिया-समाज की बातें छोड़कर ललित किस्म की बातें क्यों ज्यादा लिखने लगा हूँ। यह फैसला मुझे जनवरी में ही लेना था- 2012 के बाद देश के बारे में नहीं सोचना है- यह तय कर रखा था। मगर दामिनी काण्ड ने मुझे विचलित कर दिया था- अब तक उसके दरिन्दों को भी लटकाया नहीं गया है।
       इस देश के 'अन्तरिक्ष विभाग' तथा 'परमाणु विभाग' के अलावे मैं किसी विभाग, किसी व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं रखता और सबके ध्वस्त होने की कामना करता हूँ... ध्वंस के बीज से ही नया निर्माण शुरु होगा।
       *****  

शनिवार, 17 अगस्त 2013

"सरकारी बैंक" तथा "ईटालियन सैलून"



       कल के अखबार में खबर थी कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री नाराजगी जता रहे हैं कि बैंक वाले ठीक से काम नहीं करते, जिस कारण राज्य की गरीब जनता आज भी महाजनों के चंगुल में फँसी है। इस "महाजनी" लूट के खिलाफ ही कभी सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव ने आन्दोलन चलाया था। उनके अनुसार बैंक वाले खाता खोलने के पचासों चक्कर लगवाते हैं, ऋण देने में कोताही बरतते हैं, वगैरह-वगैरह।
       आज के अखबार में एक विज्ञापन देखा- देश के वित्तमंत्री महोदय भारतीय स्टेट बैंक की 15,000वीं शाखा का उद्घाटन करने जा रहे हैं।
       ***
       मुझे दोनों महानुभावों से कुछ कहना है।
       हेमन्त सोरेन साहब, जब सेना "मुनाफा" नहीं कमाती, पुलिस मुनाफा नहीं कमाती, न्यायपालिका मुनाफा नहीं कमाती, डी.सी., बी.डी.ओ. से लेकर कर्मचारी, चपरासी तक का विशाल अमला मुनाफा नहीं कमाता, विधायक-सांसदों की फौज मुनाफा नहीं कमाती, तो एक ऐसे सरकारी बैंक की स्थापना करने से आपलोगों को किसने रोका है, जो "मुनाफा" न कमाये, बल्कि देश/राज्य के सामाजार्थिक उत्थान के लिए काम करे? इसकी शाखायें दूर-दराज तक फैली हों, इसके स्टाफ को सरकारी वेतन मिले, यहाँ सबका खाता खुले, सबको ऋण मिले, वगैरह-वगैरह। क्यों आपलोग यह चाहते हैं कि "मुनाफा" कमाने वाली एक संस्था ही यह सब काम करे?
       (अगर ऐसे "सरकारी" बैंक का "खाका" चाहिए, तो वह मैंने तैयार भी कर रखा है- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/2009/12/2.html )  
       ***
       चिदम्बरम साहब, मेरे एक दोस्त का कहना है कि स्टेट बैंक को चाहिए कि वह नयी-नयी शाखायें खोलने में कम ध्यान दे और जो शाखायें खुली हुई हैं, वहाँ स्टाफ बढ़ाये। उस दोस्त ने स्टेट बैंक को छोड़कर किसी और बैंक की सेवा लेनी शुरु कर दी है।
       हो सकता है, नगरों-महानगरों में स्टेट बैंक की शाखायें चकाचक होती हों, स्टाफ भरपूर होते हों और मूलभूत सुविधायें भी उपलब्ध होती हों, मगर मैंने दूर-दराज के इलाकों में स्टेट बैंक की कुछ शाखाओं को देखा है और तकरीबन सभी जगह स्थिति एक-जैसी ही मिली है- सैकड़ों की रेलम-पेल को सम्भालने के लिए एकाध स्टाफ, खटारा कम्प्यूटर, लचर लिंक, कबाड़खाने जैसा वातावरण; शौचालय-पार्किंग की बात छोड़िये, पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं!
मूलभूत सुविधाओं से रहित इन शाखाओं की यह स्थिति देखकर मुझे बरबस "इटालियन सैलून" की याद आ गयी है! शायद आप चौंक गये हों। मैं भी चौंका था, जब हाई स्कूल के दिनों में एक दोस्त ने बताया था कि वह तो इटालियन सैलून में बाल कटवाता है। बाद में उसने राज खोला कि रेलवे स्टेशन परिसर में बैठने वाले नाईयों से वह बाल कटवाता है, जहाँ सुविधा के नाम पर सिर्फ एक छतरी जमीन से गड़े एक छड़ से बँधी होती है- धूप से बचने के लिए। चूँकि यहाँ बाल काटने वाला और कटवाने वाला दोनों "ईंट" पर बैठते हैं, इसलिए ऐसे सैलूनों को "ईटालियन" सैलून कहना चाहिए- उसका कहना था।
(प्रसंगवश, ऐसे सैलून बहुत दिनों से मेरी नजर से नहीं गुजरे हैं- शायद बहुत ही अन्दरुनी हिस्सों में अब भी ये पाये जाते हों।)
***** 

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

155. स्वतंत्रता दिवस: 15 अगस्त बनाम 21 अक्तूबर



हो सकता है कि मेरे बहुत-से साथी न जानते हों कि भारत की आजादी के लिए "15 अगस्त" की तारीख को इसलिए चुना गया था अँग्रेजों द्वारा कि इसी दिन दो साल पहले जापान ने घुटने टेके थे
अतः 15 अगस्त को "भारत के कुएं" में रहते हुए हमारा जश्न मनाना तो शोभनीय है, मगर जब हम इस कुएं से बाहर निकल कर "विश्व के समन्दर" में आयेंगे, तो हम पायेंगे कि यह बड़ा ही दर्दनाक दिन है...
एक उद्धरण:  
"The date August 15 was also carefully chosen by the British. It was on this very day that Japan surrendered in 1945. What better way to thwart any possible Indo-Japanese linkage in future than to make India (and South Korea) celebrate while Japan remembers its humiliation! Specially relevant in the days of 1947 when the stories of Japanese support to Subhas Chandra Bose's Indian National Army were a household word in India!"
       ***
       व्यकिगत रुप से मैं 21 अक्तूबर की तारीख को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाये जाने का पक्षधर हूँ- क्योंकि इसी दिन 1943 को "स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार" (आरज़ी हुकूमत-ए-आज़ाद हिन्द / Provisional Government of Free India) की स्थापना हुई थी

      (3.4 आरजी हुकुमत-ए-आजाद हिन्द)

      जरा देखूँ तो सही, कितने लोग मेरी भावना के साथ हैं...

      ***** 

रविवार, 11 अगस्त 2013

154. "ना-पाक"-इस्तान


एक होता है- लड़ते हुए शहीद होना- यह अलग मामला है- आमतौर पर अपने यहाँ इसपर फख्र किया जाता है. मगर जब सीज-फायर का उल्लंघन करते हुए धोखे से किसी सैनिक को मारा जाता है, तो यह शर्म की बात होती है. ...और मार कर सैनिक का सर काटकर ले जाना- ट्रॉफी के रुप में- यह हद से ज्यादा शर्मनाक है! 


सारी दुनिया में एक पाकिस्तानी कौम ही है, जो ऐसा कर सकती है. मुझे नहीं लगता कि चीनी सैनिक कभी भारतीय सैनिकों पर धोखे से हमला करेंगे, या उनका सर काटकर ले जायेंगे. एक नीच कौम ही ऐसा कर सकती है. और उस नीच कौम से बातचीत? छिः! 

(प्रसंगवश, 1962 में चीन का आक्रमण 'धोखा' नहीं था- तिब्बत पर चीन के बलात् अधिग्रहण के साथ ही युद्ध की पटकथा लिखी जाने लगी थी. 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' की रेत में सिर गाड़े सिर्फ नेहरूजी के लिए यह 'धोखा' था- बाकी सभी जानते थे कि चीन आक्रमण करने वाला है.)  

सोचिये कि जब धोखे से मारे गये सैनिकों के शव उनके घरों में पहुँचते होंगे, तो घर वालों पर क्या बीतती होगी! वे फख्र करें भी तो कैसे इस शहादत पर? 

और हमारे नेता? शहीदों की तस्वीर तो छोड़िये, नामपट्ट तक संसद भवन की दीवारों पर नहीं लगते. हमसे बेहतर तो अँग्रेज थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ते हुए शहीद होने वाले भारतीय सैनिकों के नाम खुदवा कर बाकायदे "इण्डिया गेट" बनवा दिया! 

अगर एक नेता के मुँह से यह निकल जाता है कि इन सैनिकों को तो तनखा मिलती ही है शहीद होने के लिए- तो फिर जान लीजिये कि आज के सारे राजनेताओं के मन की यह बात है! 

कम-से-कम पाक-अधिकृत काश्मीर में चलने वाले आतंकवादी शिविरों पर तो भारत आक्रमण कर ही सकता है- क्योंकि भारत इसे अपना हिस्सा बताता है. अगर युद्ध की शुरुआत हो जाय, तो हो जाय- डर क्या है? खत्म कर दिया जाय पाकिस्तान नामक राष्ट्र को, उसकी सेना को, उसकी गुप्तचर संस्था (आई.एस.आई) को और तालिबानी मदरसों को! बना दिया जाय पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान और पख्तूनिस्तान को नये राष्ट्र!

हो सकता है कि चीन और अमेरिका इस सैन्य अभियान का समर्थन न करे, ऐसे में भारत को चाहिए कि वह रूस को भरोसे में ले. 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

153. मैं सही रास्ते पर हूँ (भाग-2)



       पिछले साल 29 जुलाई को मैंने इस ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था- इसी नाम से- अखबार में कुछ लेखों को पढ़ने के बाद। (मैं सही रास्ते पर हूँ...)
       पिछले दिनों प्रो. अरूण कुमार (जे.एन.यू.) का साक्षात्कार पढ़ने के बाद फिर इसी शीर्षक के इस्तेमाल के लिए मैं बाध्य हुआ।
       बात ऐसी है कि मैं अक्सर कुछ बातों को दुहराता हूँ, जैसे-
1.       भारत द्वारा विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों को मानने से इन्कार करना (बशर्ते कि इन्हें संयुक्त राष्ट्र के अधीन न ले आया जाय और इनकी नीतियों को गरीबपरस्त न बनाया जाय।)
2.       अमेरिका, यूरोप, ऑस्टेलिया के बजाय अफ्रिकी, एशियायी और दक्षिणी अमेरिकी देशों से मित्रता बढ़ाना।
3.       शोषण, दोहन, उपभोग की बजाय समानता, पर्यावरण-मित्रता एवं उपयोग पर आधारित आदर्श विश्व व्यवस्था का निर्माण करना।
4.       इस व्यवस्था में भारत का नेतृत्व होना।
5.       विश्व-व्यापार में 1:1 का अनुपात अपनाना। 
6.       मैं तो एक सम्पूर्ण "भारतीय कम्प्यूटर प्रणाली" तक की बात करता हूँ।
7.       नयी व्यवस्था कायम करने के लिए मैं दस वर्षों के लिए पूरी शासन-प्रणाली ही बदलना चाहता हूँ।

***
बहुत-से लोगों को लगता होगा कि इन सबसे भारत दुनिया में अलग-थलग पड़ जायेगा।
मुझे भी लगता था कि शायद मेरे-जैसा विचार कोई नहीं रखता होगा। मगर देखा कि जे.एन.यू. के अर्थशास्त्री प्रो अरूण कुमार लगभग यही बातें कह रहे हैं। उनके साक्षात्कार से उद्धृत कुछ अंश:
   मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है. लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल असर पड.ता हो.
ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो. भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है.
भारत, चीन, ब्राजील जैसे बडे. देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है. भारत में इतने संसाधन हैं कि यहां सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है. इससे वैश्‍वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग नहीं पडे.गा.
आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं. देश में पब्लिक ट्रांसपोर्स सिस्टम पर्याप्त नहीं है. लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने लगें तो पेट्रो पदार्थकी खपत दस गुनी कम हो जायेगी. 
***
       पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और सांसदों की विलासित बढ.ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढे. हैं. अरबपति सांसदों की संख्या बढ. रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड. रुपये के चंदे मिल रहे हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?...
       भारत में राजनेता अपने आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को पब्लिक सर्वेंट मानते हैं....
       पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी. देश में संभ्रांत वर्ग केंद्रित नीति अपनायी गयी. इससे संसद में करोड.पति सांसद आने लगे. राजनीतिक पार्टियां अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं....
       असल में विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है. यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र है. इसी धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है. सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं....
       मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है.
       ***
       कहने की आवश्यकता नहीं, मैं सही रास्ते पर ही हूँ...
       *****
(उनका पूरा साक्षात्कार पढ़ने के लिए:
मुख्य अंश पढ़ने के लिए:

152. भगत सिंह क विचारों को सरकारी मान्यता?


आखिरकार भारत सरकार ने अमर शहीद भगत सिंह की मुखाकृति वाले  पाँच रुपये के सिक्के को जारी कर ही दिया।
इसे क्या समझा जाय- हमारी सरकार ने भगत सिंह के विचारों को मान्यता देना शुरु कर दिया? 
अगर ऐसा ही है, तो फिर लगे हाथ शहीदे-आजम के विचारों को भी जान लिया जायः-

भगत सिंह का एक आलेख साप्ताहिक "मतवाला" (वर्ष-2, अंक- 38) में 16 मई 1925 को बलवन्त सिंह के नाम से प्रकाशित हुआ था. "युवक" शीर्षक वाले इस आलेख में अमेरिका के एक युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी का उल्लेख करते हुए भगत सिंह लिखते हैं:

"जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलन्त घोषणा करने का साहस भी है कि 'We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man's duty to destroy that Government.' अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है.
"ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नीन्द में पड़ा बे-खबर सो रहा है. उठ, आँखें खोल, देख, प्राची दिशा का ललाट सिन्दुर-रंजित हो उठा. अब अधिक मत सो. सोना हो, तो अनन्त निद्रा की गोद में में जाकर सोता रह. कापुरुषता की क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठ-
      'Farewell Farewell My true Love
            The army is on move,
            And if I stayed with you Love,
            A coward I shall prove.'
            "तेरी माता, तेरी प्रातःस्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामांचला आज फूट-फूट कर रो रही है. क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसकत्व परक़ यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओं की एक-एक बून्द की सौगन्ध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वन्देमातरम! 
*** 
भगत सिंह के आलेख वाला अंश : "अहा जिन्दगी" (अगस्त'2013) से साभार 


शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

151. "विखण्डन" व "संयोजन"- साथ-साथ! (प्रसंग: राज्यों का पुनर्गठन)


       एक राष्ट्र को कई राज्यों में बाँटना अगर "विखण्डन" है, तो कई राज्यों को एकसूत्र में बाँधना "संयोजन"। अपने भारत में दोनों प्रक्रिया को साथ-साथ चलाने की जरुरत है। हालाँकि मैं जिस ढंग के पुनर्गठन की बात कर रहा हूँ, वह वर्तमान व्यवस्था में सम्भव नहीं है- यह भी सच है।
       मेरे हिसाब से भारत को कुल-मिलाकर 54 राज्यों में बाँटने की जरुरत है। यह "अन्तिम" पुनर्गठन होना चाहिए- यानि इसके बाद हजार-दो हजार वर्षों तक पुनर्गठन का, या किसी नये राज्य के गठन का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए!
       आप कहेंगे, 54 राज्यों का तो नाम भी याद नहीं रखा जा सकता? और फिर 54 ही क्यों- 53 या 55 क्यों नहीं? इन सवालों का जवाब मिल रहा है।
       सबसे पहले यह बता दिया जाय कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए जनता की इच्छा या माँग के साथ भौगोलिक स्थिति, सभ्यता-संस्कृति, भाषा, प्रशासनिक सुविधा को भी ध्यान में रखा जाय।
       54 राज्यों का गठन होने के बाद एक अँचल के 9 राज्यों को एक "अँचल" के रुप में संगठित किया जाय। देश में कुल 6 अँचल होने चाहिए- 1. उत्तरांचल, 2. दक्षिणांचल, 3. पूर्वांचल, 4. उत्तर-पूर्वांचल, 5. पश्चिमांचल और 6. मध्यांचल। इस प्रकार, किसी को एक पंक्ति में 54 राज्यों के नाम याद रखने की जरुरत नहीं पड़ेगी। सबको सिर्फ 6 अँचलों के नाम याद रखने हैं। अब एक अँचल के अन्दर के जितने भी राज्यों के नाम याद रह जायं, उतना ही काफी है!
       ये अँचल देश की "सांस्कृतिक" इकाई होंगे, न कि "राजनीतिक"। यह एक "अँचलपाल" के अधीन होगा, जिनकी भूमिका दोहरी होगी- 1. वे अपने अँचल के 9 राज्यों के लिए "राज्यपाल" की भूमिका निभायेंगे और 2. देश के लिए वे "उपराष्ट्रपति" की भूमिका में होंगे।
       54 संख्या के पीछे कोई रहस्य या टोटका नहीं है। दरअसल, आज जो तीन तरह के पहचानपत्र प्रचलन में हैं- 1. मतदाता पहचानपत्र, 2. 'पैन' कार्ड और 3. 'आधार' कार्ड,- इन तीनों को एकीकृत करते हुए एक "राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र" बनाने की जरुरत है। इसमें लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में मतदान के लिए बाकायदे "विन्दु" भी होंगे, जिन्हें मतदान के दौरान बाकायदे "पंच" भी किया जायेगा। यानि मतदान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए और भाग न लेने वालों पर जुर्माना लगना चाहिए। कुल-मिलाकर यह एक "बहुद्देशीय" पहचानपत्र होगा।
       अब इस पहचानपत्र को जब नम्बर देंगे, तब यह 54 की संख्या काम आयेगी। एक अँचल में 9 राज्य हो गये, अब एक राज्य में 9 जिले/महानगर  हों, एक जिले/महानगर में 9 प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर, एक प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर में 9 थाने और एक थाने में 9 पंचायत/वार्ड हों।
       अब देखिये कि पहचानपत्र में सिर्फ "6 अंक" डालकर हम किसी भी नागरिक के अँचल, राज्य, जिला, प्रखण्ड, थाने और पंचायत का पता लगा सकते हैं! इसके बाद के तीन या चार अंक धारक नागरिक की अपनी संख्या होगी, जिसे वह याद रखेगा।  
       हालाँकि व्याख्या की गुंजाइश अभी और है, मगर 'थोड़ा कहा, बहुत समझना' के तहत बात समाप्त की जा रही है और ऊपर कही गयी एक बात को फिर से दुहराया जा रहा है: यह सच है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा पुनर्गठन सम्भव नहीं है!
       *****