बुधवार, 30 जनवरी 2013

गण"तंत्र" दिवस बनाम "गण"तंत्र दिवस


(इसे लिखा तो मैंने 26 जनवरी को ही था, मगर पोस्ट नहीं कर पाया था.) 

       जो लोग गण"तंत्र" दिवस मनाते हैं, वे बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर बुलेटप्रूफ कारों में बैठकर आते हैं, ब्लैक कैट कमाण्डो के घेरे में सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, रस्मअदायगी करते हुए तिरंगा फहराते हैं और बुलेट्प्रूफ शीशे के पीछे से अपने गण को सम्बोधित करते हैं।
       इसके मुकाबले जो "गण"तंत्र दिवस मनाते हैं, उनके दिलों में सूर्योदय के साथ ही देशभक्ति की भावानायें हिलोरें लेने लगती हैं, उनके होठों पर आशा की मुस्कान थिरकती है, उनकी आँखों में सुनहरे भविष्य की चमक होती है, एक दिन के लिए वे अपने सारे दुःखों को भूल जाते हैं और सोचते हैं, एकदिन देश में खुशहाली जरुर आयेगी।
       ***
       मैं अपने स्वभाव से ही "गण" का पक्षधर रहा हूँ और "तंत्र" का विरोधी। अगर नियति ने प्रसन्न होकर मुझे कभी इस देश को चलाने का अवसर दिया, तो मैं एक ऐसी व्यवस्था कायम कर सकता हूँ, जहाँ नीचे से ऊपर तक गण का ही प्रभुत्व रहेगा। तंत्र या तो कहीं दीखेगा नहीं और दीखेगा भी तो गण के चाकर के रुप में। खुद मुझे गण में से खोजकर निकालना एक मुश्किल काम होगा... ।  

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

एक न्यायपालिका: जड़बुद्धि, दकियानूस तथा चापलूस!



       सन्दर्भ नं. 1: कुछ समय पहले एक देश में विश्व का जघन्यतम बलात्कार हुआ था। अगर वहाँ का सर्वोच्च न्यायालय चाहता, तो ऐसा निर्देश दे सकता था कि चूँकि यह एक अ-साधारण मामला है, अतः इसकी सुनवाई के दौरान "बालिग-नाबालिग" का मुद्दा नहीं उठाया जायेगा। अगर कोई आरोपित नाबालिग है भी, तो अपराध की जघन्यता एवं वीभत्सता को देखते हुए उसे किशोर-न्यायालय में नहीं भेजा जायेगा, बल्कि सभी आरोपितों पर सामान्य अदालत में ही मुकदमा चलेगा। ..मगर वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा कोई निर्देश नहीं जारी किया।
       सन्दर्भ नं. 2:  उस देश के किशोर-न्यायालय ने एक आरोपित को स्कूल में दर्ज जन्मतिथि के आधार पर नाबालिग घोषित कर दिया; जबकि पुलिस जाँच में यह साबित हो गया है कि उसी आरोपित ने वहशीपन की सारी हदें पार की थीं। मगर चूँकि उसकी उम्र 18 साल से छह महीने कम है, सो अब उसपर किशोर-न्यायालय में मुकदमा चलेगा और वह एक तरह से बाइज्जत बरी हो जायेगा। सभी जानते हैं कि उम्र-निर्धारण की एक "वैज्ञानिक" पद्धति आज की तारीख में मौजूद है (अस्थि-मज्जा, बोन-मैरो की जाँच), मगर फिर भी, वहाँ की अदालत ने स्कूल में दर्ज जन्मतिथि को सही माना। यह भी सभी जानते हैं कि उस देश में आम तौर पर स्कूल में नाम लिखवाते समय बच्चे की उम्र दो-ढाई साल तक घटाकर ही माता-पिता दर्ज करवाते हैं।
       ***
       कुल-मिलाकर, पहली बात यह है कि दुनिया के इस जघन्यतम बलात्कार में बालिग-नाबालिग का मुद्दा उठाया जाना ही नहीं चाहिए था, और दूसरी बात यह है कि मुद्दा उठ गया, तो वैज्ञानिक तरीके से उम्र का निर्धारण होना चाहिए था।
       ***
       एक तीसरी बात भी है। उस देश के वासियों के अलावे दुनिया के सभी देशों की और यू.एन.ओ. की नजरें भी इस बलात्कार की न्यायिक प्रक्रिया पर टिकी हैं- सभी देखना चाहते हैं कि इन दरिन्दों को कितनी जल्दी और कितना कठोर दण्ड मिलता है!
       ***
       इन सबके बावजूद उस देश की न्यायपालिका ने उपर्युक्त दोनों फैसले लिये। ऐसा करके वह अपने देशवासियों को तथा विश्व-बिरादरी को क्या सन्देश देना चाहती है- मुझे नहीं पता। मगर मेरी सामान्य बुद्धि इन दोनों फैसलों से जो सन्देश ग्रहण कर रही है, वह इस प्रकार है-
1.     उस देश की न्यायपालिका एक "जड़बुद्धि" व्यवस्था या संस्था है, जो याची/पीड़ित को "न्याय" दिलाने, अभियुक्त को दोषी या निर्दोष साबित करने तथा दोषी को कठोरतम दण्ड देना नहीं चाहती। उसकी रुची सिर्फ इस बात में होती है कि न्यायिक-"प्रक्रियाओं" का अक्षरशः पालन हो रहा है, या नहीं! दूसरी बात, वह कानून के शब्दों के "भावार्थ" को एक रत्ती भी नहीं समझती है, वह सिर्फ "शब्दार्थ" समझती है!
(जड़बुद्धि का एक उदाहरण कम्प्यूटर है। वह अपने प्रोसेसर वगैरह में दर्ज निर्देशों तथा मेमोरी वगैरह में डाली गयी सूचनाओं के आधार पर निर्णय लेता है। किसी भी परिस्थिति में वह "लीक से हटकर" फैसला नहीं ले सकता; क्योंकि उसमें "चेतना" नहीं होती। उस देश की न्यायपालिका ने भी "लकीर का फकीर" बने रहकर अपनी बुद्धि के "जड़" होने का प्रमाण दे दिया है! कभी कम्प्यूटर पर अनुवाद कार्य करके देखा जाय, कि शब्दों का "भावार्थ" नहीं समझने पर अनुवाद-कार्य का कैसा गुड़-गोबर होता है!)
2.     उस देश की न्यायपालिका आज भी उन्नीसवीं सदी की औपनिवेशिक मानसिकता में जी रही है! हालाँकि बीसवीं सदी के "टाइपराइटर" को वहाँ अपना लिया गया है, मगर "मानसिक" रुप से वह उन्नीसवीं सदी में ही जी रही है। उस न्यायपालिका को "विज्ञान" तथा "वैज्ञानिक"-जैसे शब्दों से सख्त चिढ़ है!
(तभी तो उस देश में आज भी बलात्कार की शिकार पीड़िता के शरीर के अन्दर दो उँगलियाँ डालकर इस बात की जाँच की जाती है कि कहीं पीड़िता सम्भोग करने की अभ्यस्त तो नहीं है! दुनिया के किसी भी सभ्य देश में ऐसी घिनौनी, नीच, अवैज्ञानिक जाँच नहीं होती, मगर उस देश में होती है और वह भी "कानूनन"!)
3.     उस देश की न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है, बल्कि "सत्ता"-धारियों के इशारों पर कार्य करती है। कुछ "खास कारणों" से उस देश के सत्ताधारी उस तथाकथित नाबालिग आरोपित को बचाना चाहते हैं। उस देश का प्रशासन और पुलिसबल तो पहले ही सत्ताधारियों का चापलूस बन गया है, अब वहाँ की न्यायपालिका ने भी "खुले-आम" खुद को सत्ता का चापलूस साबित कर दिया है! हर हाल में उस वहशी दरिन्दे को बचाने के प्रयास चल रहे हैं।
(उन "खास कारणों" का यहाँ जिक्र नहीं किया जा रहा है क्योंकि देश-दुनिया की जो पब्लिक है, वह सब देख रही है, सुन रही है, जान रही है और समझ रही है!)
******* 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

नयी सोच, नयी शुरुआत... और नया भारत




       12 जनवरी को- स्वामी विवेकानन्द जयन्ती पर- अपने आलेख का समापन मैंने इस उद्घोषणा के साथ किया था: ““भारतीयता का पुनर्जागरण” या “भारत का पुनरुत्थान” एक नये, यानि अब तक अपरिचित, नेतृत्व के द्वारा होगा।”1
       आज 23 जनवरी को- नेताजी सुभाष जयन्ती पर- मैं इसी विन्दु से शुरुआत कर रहा हूँ कि “भारतीयता के पुनर्जागरण” और “भारत के पुनरुत्थान” के निहितार्थ क्या हैं, यह किस तरह से और कब तक घटित होगा। देखा जाय, तो ये दोनों घटनायें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- जब भी घटेगी, दोनों घटनायें साथ ही घटेंगी।
       ***
       “भारतीयता के पुनर्जागरण” के लिए सबसे पहले तो “राष्ट्रमण्डल” (कॉमनवेल्थ) की सदस्यता का परित्याग करना होगा और 15 अगस्त 1947 के “सत्ता-हस्तांतरण समझौते” को रद्दी की टोकरी में फेंकने की “आधिकारिक एवं वैधानिक” घोषणा करनी होगी। बात दरअसल यह है कि राष्ट्रमण्डल की सदस्यता तथा सत्ता-हस्तांतरण की शर्तें हमें अँग्रेजों के बनाये संविधान (मत भूलें कि हमारे संविधान का दो-तिहाई हिस्सा “1935 का अधिनियम” ही है!) तथा अँग्रेजों की बनायी पुलिस, प्रशासनिक, सैन्य एवं न्यायिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए बाध्य करती है। यह अधिनियम, ये व्यवस्थायें दुनिया के सबसे बड़े “उपनिवेश” (ब्रिटिश साम्राज्य के लिए “उपनिवेशों का कोह-ए-नूर”) पर “राज” करने के लिए बनायी गयीं थीं, न कि एक “स्वतंत्र” देश की व्यवस्था के रुप में इन्हें बनाया गया था। कहने का तात्पर्य, हमें शुरुआत शून्य से करनी होगी... संविधान सहित सभी व्यवस्थाओं को नये सिरे से बनाना होगा... भारतीय पृष्ठभूमि पर...
       दूसरी बात। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के चंगुल से हमें बाहर निकलना होगा। ध्यान रहे- ये तीनों ही संस्थायें “संयुक्त राष्ट्र संघ” (यू.एन.ओ.) की अंग नहीं हैं! इनके साथ हमने जो भी समझौते कर रखे हैं- गुप्त रुप से या खुलकर, उन सबको कचरे की पेटी में फेंकने की जरुरत है। विश्व बैंक और आई.एम.एफ. से हमने जो कर्ज ले रखे हैं, उनके बारे में हमें घोषणा करनी होगी- 1. फिलहाल इन कर्जों को चुकाने से हम मना करते हैं; 2. जब हम विदेशों में जमा भारतीयों के कालेधन को जब्त कर लेंगे, तब इस कर्ज को चुकाने के बारे में सोच सकते हैं, मगर उसमें भी सिर्फ मूलधन चुकायेंगे- ब्याज नहीं; 3. कर्ज कब तक चुकायेंगे, कितनी किस्तों में चुकायेंगे- यह हम तय करेंगे; और 4. आप यह सोचकर इन कर्जों को भूल जाईये कि भारत को उपनिवेश बनाकर इसका जो शोषण किया गया था, उसी का मुआवजा दिया गया है।
       तीसरी बात। टैंक से लेकर युद्धक विमान तक और मोबाइल से लेकर कम्प्यूटर तक- हर चीज को देश के अन्दर ही बनाने की शुरुआत की जानी चाहिए। (जब कम्प्यूटर कहा जा रहा है, तो इसका अर्थ हुआ, भारतीय वर्णमालाओं पर आधारित भारत का अपना ऑपरेटिंग सिस्टम, की’बोर्ड, अपने सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर, अपना इण्टरनेट इत्यादि- वर्तमान प्रणाली अपनी जगह कायम रहेगी।) इस सम्बन्ध में कुछ विचारणीय विन्दु ये हैं- 1. चूँकि भारत कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपक, अन्तर्महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल और सुपर कम्प्यूटर बना चुका है, अतः इस अभियान में कोई बड़ी बाधा सामने नहीं आनी चाहिए; 2. बाधायें आयीं, तो शून्य से शुरुआत करने की प्रक्रिया अपनायी जायेगी- जैसे कि विमान निर्माण की शुरुआत ‘गुब्बारा उड़ाने’ से की जा सकती है; 3. विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में अब तक ‘स्वदेशीकरण’ को जानबूझ कर नहीं अपनाया जा रहा है कि इससे ‘कमीशनखोरी’ का विकल्प समाप्त हो जाता है; और 4. जरुरत पड़ने पर दुनियाभर में फैले भरतीय मूल के इंजीनियरों, तकनीशियनों एवं वैज्ञानिकों के नाम एक पंक्ति के इस आह्वान को जारी किया जा सकता है- “भारत माँ को उसके होनहार, मेधावी एवं कर्मठ बेटे-बेटियों की जरुरत आन पड़ी है... जो भी, जहाँ कहीं भी है, माँ सबको घर बुला रही है...”
       ***
       “भारत के पुनरुत्थान” के लिए- 1. सबसे पहले तो भ्रष्ट राजनेताओं, भ्रष्ट उच्चाधिकारियों, भ्रष्ट पूँजीपतियों तथा माफिया-सरगनाओं को देश की मुख्यभूमि से बाहर निकाल कर निकोबार के किसी टापू पर उन्हें बसाने की जरुरत है; 2. शासन, प्रशासन, पुलिस, सेना तथा न्यायपालिका के उच्च एवं सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के चरित्र, आचरण एवं कार्यों पर नजर रखने तथा गलती करने पर उन्हें दण्डित करने के लिए ‘पंच परमेश्वर’ के रुप में एक शक्तिशाली संस्था के गठन की जरुरत है; 3. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के निवारण के लिए, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए और नागरिकों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाने के लिए 5-5 ‘सतर्कता-मजिस्ट्रेटों’ की नियुक्ति की जरुरत है, जो ‘पंच परमेश्वर’ के अधीन रहकर कार्य करें; 4. देश व विदेशों में जमा कालेधन को जब्त कर (उसे सोने में बदलकर) ‘रुपये के मूल्य’ को ऊँचा उठाने की जरुरत है; 5. न्यूनतम व अधिकतम वेतन-भत्तों-सुविधाओं (सरकारी या निजी) के बीच 1:5, या 1:7 या फिर 1:15 के अनुपात को तय किये जाने की जरुरत है; 6. भूमि का- खासकर, कृषिभूमि का- नये सिरे से एवं आधुनिक तकनीक के साथ सर्वेक्षण, वर्गीकरण, चकबन्दी एवं पुनर्वितरण की जरुरत है; 7. जिस किसी उपभोक्ता वस्तु का निर्माण/उत्पादन कुटीर एवं लघु उद्योगों में सम्भव है, उनका वृहत उद्योगों/औद्योगिक घरानों द्वारा निर्माण/उत्पादन तथा उनका आयात बन्द किये जाने की जरुरत है; 8. प्रत्येक 100 की आबादी पर कम-से-कम 1 शिक्षाकर्मी, 1 स्वास्थ्यकर्मी तथा 1 सुरक्षाकर्मी की नियुक्ति की जरुरत है; 9. जहाँ तक ‘प्रशासनिक अधिकारियों’ की नियुक्ति की बात है, इसके लिए उन्हीं युवाओं का चयन किये जाने की जरुरत है, जो स्नातक (किसी भी श्रेणी से) होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यों, सांस्कृतिक गतिविधियों और साहसिक अभियानों में भाग लेते रहे हों; 10. छोटे किसानों, मजदूरों, गरीबों के लिए अलग से एक ‘राष्ट्रीय बैंक’ के गठन की जरुरत है, जो मुनाफा कमाने के स्थान पर इन लोगों के सामाजार्थिक उत्थान के लिए कार्य करे; 11. सभी छोटे किसानों-मजदूरों को ‘विश्वकर्मा सेना’ के नाम से एक “आरक्षित” सेना के रुप में संगठित करने तथा जनता के पैसे से होने वाले प्रत्येक निर्माण कार्य को इसी सेना के माध्यम से करवाये जाने की जरुरत है; 12. विदेशी/बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को किसी भारतीय कम्पनी में 33% तक पूँजीनिवेश करने तथा मुनाफे का इतना ही हिस्सा वसूल करने देने की जरुरत है- उन्हें स्वतंत्र रुप से देश में व्यवसाय नहीं करने देना चाहिए; 13. आयात-निर्यात के मामले में अमीर देशों के साथ शत-प्रतिशत बराबरी रखने की जरुरत है- अगर कोई अमीर देश भारत से एक रुपये का सामान मँगवाता है, तो भारत को भी वहाँ से एक ही रुपये का सामान मँगवाना चाहिए; 14. आम जनता के लिए ‘आवश्यक’ वस्तुओं/सेवाओं पर से सभी प्रकार के करों को हटाने, ‘आरामदायक’ वस्तुओं/सेवाओं पर कर कम रखने तथा इनकी भरपाई के लिए (“आम जनता के लिए-“) ‘विलासिता’ की वस्तुओं/सेवाओं पर कर बढ़ाने की जरुरत है; 15. इसी प्रकार, आम जनता के लिए ‘आवश्यक’ वस्तुओं की आयात पर अगर 5% का शुल्क रखा जाता है, तो ‘आरामदायक’ वस्तुओं की आयात पर 50% तथ ‘विलासिता’ की वस्तुओं की आयात पर 100% शुल्क रखे जाने की जरुरत है; 16. प्रदूषित शहरों में मोटर गाड़ियों के पंजीकरण/स्थानान्तरण तथा नये उद्योग-धन्धों के निर्माण पर पाबन्दी लगाने, भूमि के 33% हिस्से को हरियाली से ढकने तथा नदियों पर बने बाँधों को तोड़ते हुए उन्हें स्वाभाविक रुप से बहने देने की जरुरत है; 17. देशभर में- खासकर, नगरों/महानगरों में- ‘मकड़जाल’ किस्म के "फ्लाइओवर साइकिल ट्रैकों” के निर्माण की जरुरत है;
...इस प्रकार की सैकड़ों बातें हैं, जिन्हें अपनाये जाने की जरुरत है। इनका बाकायदे एक संकलन भी मैंने तैयार कर रखा है।2
***
2014 में जो आम चुनाव होने हैं (कुछ का मानना है कि इसी साल ये चुनाव होंगे), उसके लिए देश के सभी राजनीतिक दलों ने कमर कसनी शुरु कर दी है। आप उनसे पूछकर देख सकते हैं- कोई भी दल उपर्युक्त किस्म की बातों को अपने चुनावी "घोषणापत्र" में शामिल करने के लिए राजी नहीं होगा। वे देश-समाज को जाति, धर्म, भाषा, प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता इत्यादि में बाँटने वाले मुद्दों, घिसे-पिटे भावनात्मक नारों, सड़े-गले सब्जबागी वायदों के साथ चुनावी समर में उतरेंगे; रातों-रात अरबपति बनने वालों, दर्जनों संगीन अपराधों के अभियुक्तों को अपना प्रत्याशी बनायेंगे; और जनता भी इनकी रैलियों में इस कदर उमड़ पड़ेगी कि मानो इन नेता-नेत्रियों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की शक्ल देखने के बाद उनका मानव जन्म सार्थक हो जायेगा!
चुनावों के बाद नवनिर्वाचित सांसदों की मण्डियाँ सजेंगी- खुले-आम खरीद-फरोख्त होगी और फिर भानुमति के कुनबे-जैसी एक सरकार बनेगी, जिसकी कमान या तो नागनाथ या फिर साँपनाथ के हाथों में होगी। संसद में पहुँचने वाले दलप्रतिनिधि (इन्हें जनप्रतिनिधि कहने में मुझे आपत्ति है, क्योंकि इन्हें दल वाले टिकट देते हैं, इन्हें जनता नहीं चुनती) अगले पाँच वर्षों तक लाट साहब के तरह रहेंगे और पूँजीपतियों-उद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय निगमों, अमीर देशों, वर्ल्ड बैंक-आईएमएफ-डब्ल्यूटीओ के दलाल बनकर देश के लिए नीतियाँ बनायेंगे.... जैसा कि अब तक होता आया है।
आगे भी 2019 में यही सब दुहराया जायेगा, फिर 2024 में भी यही सब कुछ दुहराया जायेगा और यह प्रक्रिया चलती रहेगी... चलती रहेगी... जब तक कि देशवासी जाग न जायें...
***
सवाल है- देशवासियों के "जागने" से यहाँ क्या मतलब है? अगर ये राजनीतिक दल देश का भला नहीं करने वाले हैं, तो कौन करेगा? कैसे करेगा?
इन सवालों का जवाब खुद देने के बजाय मैं देश के दो बड़े अर्थशास्त्रियों के कथनों को यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा।
पहला कथन डॉ. (स्व.) अरूण घोष का है, जिसे पहले भी कई बार मैं उद्धृत कर चुका हूँ। इसे मैंने 30 जुलाई 1998 के दैनिक 'जनसत्ता' में छपे उनके साक्षात्कार से नोट किया था:
मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ। भविष्य में क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। पर समाज विचलित हो रहा है। जनता की नाराजगी बढ़ रही है। मेरा मानना है कि संसद वर्तमान स्थिति को रोकने की हालत में नहीं है। सभी पार्टियाँ इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं, और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है।
मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें, तो शायद कुछ हो।
दूसरा कथन डॉ. भरत झुनझुनवाला का है- कल ही, यानि 22 जनवरी को मैंने इसे दैनिक 'प्रभात खबर' में छपे उनके आलेख 'क्रोनी पूँजीवाद और विकास' से नोट किया:
"प्रसन्नता की बात है कि क्रोनी पूँजीवाद (चहेतों को लाभ पहुँचाने वाला यानि लंगोटिया पूँजीवाद) ज्यादा समय तक टिकता नहीं। अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया में वहाँ के राष्ट्रपति बेन अली के परिवार के लिए सभी व्यापारिक अवसर आरक्षित थे। देश की टेलीफोन एवं दूसरी प्रमुख कम्पनियाँ इसी परिवार के द्वारा चलायी जाती थी। यहीं अफ्रीकी क्रान्ति का शुभारम्भ हुआ। यानि क्रोनी पूँजीवाद से निबटने का रास्ता क्रान्ति का है, जिसे अन्ना हजारे, केजरीवाल और रामदेव बढ़ा रहे हैं। सरकार के सामने विकल्प है कि क्रोनी पूँजीवाद को स्वयं त्याग दे या फिर क्रान्ति का सामना करे।"
लगता तो नहीं है कि इन दोनों कथनों की व्याख्या की जरुरत है।
***
अब सवाल है कि क्रान्ति करेगा कौन?
मैंने अनुमान लगाया है कि अगर देश के 1% लोग- यानि लगभग एक-सवा करोड़ लोग- आन्दोलित हों जायें और इन्हें देश के 3 या 4 प्रतिशत लोगों- यानि 3 से 5 करोड़ लोगों का- "नैतिक समर्थन" प्राप्त हो, तो देश में क्रान्ति हो सकती है।3
अगर देश के भूतपूर्व सैनिक इस क्रान्ति में "अग्रिम पंक्ति" की भूमिका निभायें, ताकि पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बलों के जवान (?) इन पर लाठी उठाने की हिम्मत न कर सकें और भारतीय सेना का एक "सॉफ्ट कॉर्नर" भी इस क्रान्ति के प्रति बन जाये, तो फिर आन्दोलित होने के लिए दशमलव एक प्रतिशत- यानि 10-12 लाख- लोगों की संख्या ही पर्याप्त होगी!4
यहाँ एक बात को रेखांकित करना उचित होगा कि भारतीय युवाओं ने 2011 के अगस्त में और पिछले साल दिसम्बर में यह साबित कर दिया है कि क्रान्ति करने की क्षमता उनमें मौजूद है!
सवाल है- क्रान्ति के बाद क्या?
जवाब है- बर्फ पिघलने के बाद पानी अपना रास्ता खोज ही लेता है। इस सम्बन्ध में मैं दैनिक 'प्रभात खबर' से ही बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु जी के एक आलेख का अन्तिम पाराग्राफ यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा, जो 3 जनवरी को प्रकाशित हुआ था-
“हालाँकि लोग अक्सर चर्चा करते हैं कि जब देश में अधिकतर नेता भ्रष्ट हैं और अधिकतर पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में तब्दील हो चुकी हैं, तो जनता के पास विकल्प क्या होगा? विकल्पहीनता का प्रश्न भारतीय मानस को मथता रहता है लेकिन एक सच यह भी है कि प्रत्येक का विकल्प हमेशा ही मौजूद रहता है, भले ही अवाम उसे पहचानने में देरी करे कार्ल मार्क्‍स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की परिभाषा में लिखा है कि आदमी कुछ करे या नहीं करे, प्रकृति चुपचाप बैठी नहीं रहती है वह हमेशा घटनाओं के संघर्ष से कुछ न कुछ नया करती रहती हैमार्क्‍स की यह परिभाषा वैसे दम्भी दलों और नेताओं के लिए एक सबक है, जो समझते हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है! प्रचंड वेग से बहती धारा अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है इसी प्रकार भारतीय राजनीति की कोई अनजान धारा सभी दम्भी विकल्पों को ध्वस्त कर दे, तो कोई आश्‍चर्य नहीं और यही एक सच्चे लोकतंत्र की विशेषता भी है
***
अगर क्रान्ति कोई होनी ही है, तो उसे 2014 के आम चुनाव के दौरान ही हो जानी चाहिए। इसके लिए देश के 5 करोड़ लोगों को "लामबन्द" करने में पूर्व सेनाध्यक्ष जेनरल वी.के. सिंह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव दोनों के सम्पर्क में हैं और देश का युवा उनके आह्वान पर बाहर आ सकता है; साथ ही, सेना के भी एक बड़े हिस्से का "सॉफ्ट कॉर्नर" उनके प्रति बना रहेगा।
अगर 2014 में कुछ न हुआ, तो दो-ढाई साल अगली सरकार का काम-काज देख लिया जाय, फिर 2017 में एक फूलप्रूफ योजना बनायी जाय।
अन्त में, नेताजी सुभाष के इस कथन के साथ मैं अपनी बात समाप्त करने की अनुमति चाहूँगा-
"एक सच्चा क्रान्तिकारी हमेशा अच्छे की उम्मीद रखता है, मगर बुरे के लिए तैयार रहता है।"
*******

3.     औपनिवेशिक भारत बनाम आज का भारत: संक्षिप्त तुलना

4.     राजनीतिक परिवर्तन के तीन नियम

रविवार, 13 जनवरी 2013

अब उम्मीद नहीं...


कहा गया था कि ‘फास्ट ट्रक कोर्ट’ में प्रतिदिन सुनवाई होगी, मगर यहाँ हफ्ते दस दिन की तारीख मिलनी शुरु हो गयी। आगे चलकर महीने-दो महीने पर भी तारीख पड़ने लगे, तो आश्चर्य नहीं!
तीस-तीस गवाहों की पेशी होगी, उनसे सवाल-जवाब किये जायेंगे, दुनिया भर के गौण और निरर्थक मुद्दे उठाये जायेंगे और इस प्रकार महीने दर महीने गुजर जायेंगे.... तारीख पर तारीखें पड़ती रहेंगी...
क्या मजाल जो हमारी न्यायपालिका अपना एक घण्टा, जी हाँ एक घण्टा भी इस मुद्दे पर खर्च कर दे कि “अभियुक्त दोषी है या नहीं?” इस मुद्दे से तो उसे कभी मतलब ही नहीं होता- किसी भी लम्बित मुकदमे का इतिहास उठाकर देख लीजिये। बस गौण मुद्दों पर बहस चलती रहती है।
न्याय को एक “जीवित” अवधारणा होना चाहिए, यह सिर्फ “शब्दों” में नहीं होता- मगर यहाँ देख लीजिये- एक आरोपित का मुकदमा “किशोर न्यायालय” में चल रहा है, मानो, उसने स्कूल में किसी सहपाठी की पिटाई कर दी हो!
अगर साल भर बाद यह फास्ट ट्रैक कोर्ट फैसला दे भी दे, तो मामला फिर हाई कोर्ट जायेगा, फिर सुप्रीम कोर्ट, और फिर लौटकर निचले कोर्ट में आयेगा। फिर दुबारा एक चक्कर लगेगा। इसमें करीब एक साल और लगेगा। अन्त में, ‘दया याचिका’ दाखिल होगी। इसमें कम-से-कम तीन-चार साल पर निर्णय होगा।
जैसे, दामिनी की दुर्दशा पर पीसीआर वैन के पुलिसवालों को दया नहीं आयी थी; जैसे सफदरजंग अस्पताल के आपात्कालीन/रात्रिकालीन ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों ने दामिनी की दर्दनाक स्थिति पर तरस नहीं खाया था; जैसे हमारे राजनेताओं के भावों में  दामिनी काण्ड से कोई परिवर्तन नहीं आया; ठीक उसी प्रकार, हमारे न्यायाधीशों को भी फर्क नहीं पड़ता इस बात से कि उन दरिन्दों ने बलात्कार के बाद दामिनी के शरीर के अन्दर लोहे का सरिया घुसाकर और फिर हाथों से उसकी आँतों को खींचकर बाहर निकालने की कोशिश की थी- ताकि उनकी मर्दानगी की निशानी न बच जाय.... इन सबके लिए दामिनी सिर्फ और सिर्फ एक "केस" है बस! इससे ज्यादा कुछ नहीं
कुल मिलाकर, मैं “दामिनी काण्ड” में त्वरित सुनवाई एवं कठोरतम सजा की उम्मीद का आज त्याग करता हूँ और इस शेर को याद करता हूँ- “बड़ा शोर सुनते थे पहलू में ज़िग़र का, जो चीरा तो इक क़तरा-ए-खूँ निकला।”
***
एक आम आदमी के हिसाब से मैं देखता हूँ, तो पाता हूँ कि यह एक ऐसा मामला है, जिसका निर्णय 100 घण्टों के अन्दर आ जाना चाहिए था और फैसले में ही "दया याचिका" के विकल्प को खारिज किया जाना चाहिए था; क्योंकि- 

·         यह दुनिया का जघन्यतम बलात्कार है,
·         पीड़िता ने मृत्यु से पहले अपना बयान दर्ज करा दिया है, 
·         चश्मदीद गवाह ने दरिन्दों की पहचान कर ली है, 
·         छह में से तीन नरपिशाचों ने जुर्म कबूल कर लिया है, 
·         सारे परिस्थितिजन्य साक्ष्य उन चाण्डालों के खिलाफ हैं, 
·         देशभर में- तीन तरह के लोगों को छोड़कर*- आक्रोश है- सभी शीघ्रतम समय में कठोरतम सजा माँग रहे हैं उन जालिमों के लिए, 
·         जनता के डर से सरकार ने फास्ट ट्रैक कोर्ट बना दिया है और पुलिस ने (आजाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार) ईमानदारी से समय पर आरोपपत्र दाखिल कर दिया है,   
·         सारी दुनिया की निगाहें इस मामले पर टिकी हुई हैं,
·         चिकित्सा एवं फोरेन्सिक जाँच की रिपोर्ट भी उन कमीनों के खिलाफ है, 


इन सबके बावजूद अगर हमारी न्यायपालिका अपनी आदत के अनुसार मामले को लम्बा... बहुत लम्बा खींच ले जाये, तो मुझे तो लगता है यह बर्दाश्त के बाहर की बात होगी. 


नोट-

* जो तीन तरह के लोग आक्रोशित नहीं हैं, वे हैं- 

1. खाप पंचायत वाले, जिनका दिमाग नहीं होता, जो हर बलात्कार के लिए लड़कियों को जिम्मेदार मानते हैं. ये फाँसी का विरोध खुलकर कर रहे हैं. 
2. राजनेता, जो बहुत ही घाघ होते हैं, एक तीर से दो नहीं, 20-20 निशाने साधते हैं, जो पक्के मगरमच्छ होते हैं- आदमी को निगल जायें, डकार न लें और फिर आँसू बहायें. ये किसी रासायनिक बन्ध्याकरण की सजा की माँग कर रहे हैं. सवाल है- यह ऑपरेशन करेगा कौन?- तो सरकारी डॉक्टर. और क्या सरकारी डॉक्टर की मजाल है, जो वह एक सजा पाये राजनेता को नपुँसक बना दे? वह तो बिना कुछ किये "नपुँसकता प्रमाणपत्र" दे देगा और कोर्ट उस प्रमाणपत्र को ही सही मानेगा. 
3. दानवाधिकारवादी, जो फिलहाल तो डर के मारे बिस्तरों के नीचे दुबके हुए हैं, मगर जैसे ही आक्रोश जरा ठण्डा होगा और जैसे ही दरिन्दों को फाँसी मिलेगी, ये बाहर आ जायेंगे और लगेंगे मृत्युदण्ड का विरोध करने.

शनिवार, 12 जनवरी 2013

हिन्दू धर्म की रक्षा, इसके रक्षक और इसका पुनर्जागरण


स्वामी विवेकानन्द और ऋषि अरविन्द-जैसे मनीषी जब हिन्दू धर्म की रक्षा की उद्घोषणा करते हैं, तो सारी दुनिया उनकी बातों को दत्त-चित्त होकर, भाव-विभोर हो कर सुनती है। ऐसा इसलिए होता है कि उनका आध्यात्मिक स्तर बहुत ही ऊँचा है; उन्होंने वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन-मनन-चिन्तन कर रखा है; और वे एक महान एवं विश्वव्यापी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिन्दू धर्म की रक्षा की बात करते हैं। उनके विचारों को आज भी लोग पढ़ते हैं, समझते हैं, जहाँ तक बन पड़ता है, अनुसरण करते हैं, और प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
       इनके मुकाबले, आजकल सोशल मीडिया पर- खासकर, फेसबुक पर- जो लोग हिन्दू धर्म की रक्षा की बातें करते हैं, उनकी बातों में सतहीपन ही ज्यादा होता है- गम्भीरता कभी-कभार ही नजर आती है; ज्यादातर अवसरों पर उनकी भाषा शैली आक्रामक तथा एक धर्म विशेष के प्रति घृणा पैदा करने वाली होती है; और कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई उन्मादी किस्म का व्यक्ति अनर्गल प्रलाप कर रहा हो।
       अन्तर्जाल के इन हिन्दू धर्म रक्षकों ने “आध्यात्मिक उन्नति” कर रखी हो, ऐसा मुझे- उनकी वाणी/लेखनी को देखते हुए- नहीं लगता है।
       ***
       जैसा कि कहा गया है, स्वामी विवेकानन्द और ऋषि अरविन्द-जैसे मनीषियों का एक महान एवं विश्वव्यापी उद्देश्य हुआ करता था हिन्दू धर्म की रक्षा के पीछे। एक समय ऐसा आयेगा, जब यह हिन्दू धर्म सारे विश्व के मानव समाज को जीने की सही राह सिखायेगा- यह बात वे मनीषीगण जानते थे और इसलिए उनका मानना था कि इस महान एवं सनातन धर्म की रक्षा होनी ही चाहिए।
       इसके मुकाबले, अन्तर्जाल पर सक्रिय आज के हिन्दू धर्म रक्षकों का उद्देश्य जो नजर आता है, वह है-
1.   पहले तो एक धर्म विशेष के उग्रवादी स्वरुप का “भय” दिखाकर सारे हिन्दूओं को एक पाले में लाना; (यह एक “वास्तविक” “भय” है)
2.   फिर, उन्हें संगठित मतदान के लिए प्रेरित करना;
3.   और फिर, जनता का बहुमत प्राप्त कर देश की राजसत्ता को हस्तगत करना।
(कहने की आवश्यकता नहीं कि ये हिन्दू धर्म रक्षक एक सांस्कृतिक संस्था तथा उसकी एक राजनीतिक इकाई से गहरे जुड़े होते हैं।) 
राजसत्ता पाने के बाद उस “भय” के निराकरण के लिए वे क्या करेंगे- इसपर किसी को विचार प्रकट करते हुए मैंने अभी तक नहीं देखा है। अतः मैं ही उनके सामने एक कपोल-कल्पित स्थिति रखता हूँ: मान लिया जाय कि 2014 के आम चुनाव में देश के सारे हिन्दू उस धर्म विशेष के उग्रवादी स्वरुप से भयभीत होकर संगठित मतदान करते हैं और आपलोगों को प्रचण्ड बहुमत के साथ देश की राजसत्ता सौंप देते हैं। अब आप हिन्दूओं के उस “भय” को दूर करने के लिए-
1.   क्या उस धर्म के सभी अनुयायियों को “देशनिकाला” दे देंगे?
2.   क्या उस धर्म के सभी अनुयायियों का “जनसंहार” करेंगे?
3.   क्या एक हाथ में बन्दूक और दूसरे में “गीता” लेकर उन्हें ‘मृत्यु या हिन्दू धर्म’- दोनों में से एक- चुनने के लिए विवश करेंगे?
मैं समझता हूँ कि इन तीनों में से किसी भी विकल्प को अपनाने की “घोषणा” वे हिन्दू धर्म रक्षक नहीं कर सकते हैं। न तो आधुनिक विधि-विधान के मूलभूत सिद्धान्त उन्हें इसकी अनुमति देंगे और न ही हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्त। ऐसे में, स्पष्ट है कि उनको राजसत्ता सौंपने के बाद भी हमें उस धर्म विशेष के अनुयायियों के साथ ही इस समाज में रहना होगा, जिसके उग्रवादी स्वरुप से हम भयभीत हैं- और ऐसा वास्तव में है भी।
***
प्रसंगवश याद दिला दिया जाय कि-
1.   10वीं-11वीं सदी में हमारे ही पूर्वज पश्चिमोत्तर सीमा पर सैन्य किलेबन्दी के प्रति लापरवाह रहे थे, जिस कारण उस धर्म ने इस देश में प्रवेश पाया- यह एक सच्चाई है;
2.   आज की तारीख में उस धर्म को जड़ सहित उखाड़कर इस देश से बाहर फेंक देना सम्भव नहीं है- यह एक दूसरी सच्चाई है;
3.   हमारे हिन्दू धर्म में ऐसी सड़ी-गली मान्यताओं की भरमार है, जिनके कारण प्राचीन काल से लेकर अब तक बड़ी संख्या में लोग इस धर्म को छोड़कर जाते रहे हैं; और दुर्भाग्यवश, वैसी बहुत-सी मान्यताओं को हम आजतक ढो रहे हैं- यह एक तीसरी सच्चाई है।
(किलेबन्दी नहीं करने के क्या-क्या कारण थे, इनपर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है। एक उदाहरण तिब्बत का भी दिया जा सकता है कि जैसे ही यह धर्म काश्मीर तक फैला, तिब्बत ने भारत के साथ व्यापार को तिलांजली देते हुए अपनी सीमाओं को भारत के लिए बन्द कर दिया था! यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्राण बचाने के लिए जिन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ा था, या जिन्हें धोखे से (रात चुपके से किसी गाँव के कुएँ में गोमांस डाल देने पर अगले दिन सारे गाँव को धर्मनिकाला मिल जाता था) छोड़ना पड़ा था, वे जब हिन्दू धर्म में लौटना चाहते थे, तो यहाँ के पुरोहित उन्हें लौटने भी नहीं देते थे- यह भी एक बड़ी कुप्रथा थी इस धर्म की एक जमाने में। ऐसे लोगों, या उनके वंशजों के मन में हिन्दू धर्म के प्रति जो स्वाभाविक आक्रोश उपजता होगा, वह कालक्रम में उनके ‘गुणसूत्र’ में समा गया हो- तो कोई आश्चर्य नहीं!)
***
खैर, अतीत में जो हुआ, सो हुआ। अब देखा जाय कि वर्तमान परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए। मेरा आकलन कहता है-
1.   देश में रहने वाले सभी लोगों के अन्दर, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों, मौजूद “भारतीयता” की भावना को मजबूत बनाया जाना चाहिए और देश का वातावरण, देश की व्यवस्थायें ऐसी होनी चाहिए कि इनमें से हर कोई अपने भारतीय होने पर “गर्व” कर सके;
2.   कोई भी उग्रवादी धार्मिक विचारधारा हम भारतीयों की मगजधुलाई (ब्रेनवाश) न कर सके इसके लिए बाकायदे एक व्यवस्था होनी चाहिए- जैसे कि एक खुफिया पुलिस तंत्र; और भारत-विरोधी या भारतीयता-विरोधी विचार रखने वालों को राष्ट्रद्रोह की सजा मिलनी चाहिए- चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों;
3.   “मानवता” (इन्सानीयत) के मूलभूत एवं सर्वभौमिक सिद्धान्तों की बाकायदे एक “संहिता” (चार्टर) बननी चाहिए और इस देश में पलने वाले सभी धर्मों के लिए उस संहिता का पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए- धर्म या धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर किसी को भी इस देश में “अमानवीय कृत्य” करने की छूट नहीं मिलनी चाहिए, फिर चाहे वह हिन्दू धर्म का अनुयायी हो या किसी भी और धर्म का। इस मामले में शासन-प्रशासन का रवैया सख्त एवं भेद-भाव रहित होना चाहिए।
4.   ऐसा हो सकता है कि ‘वोट बैंक’-जैसी मजबूरियों के कारण ‘धार्मिक मामलों’ में सरकारें सख्त एवं भेद-भाव रहित कर्रवाई न कर सकें; ऐसे में, मेरा सुझाव यह है देश में पलने वाले सभी धर्मों, सम्प्रदायों, पन्थों, मतों के पाँच-पाँच प्रतिनिधियों को लेकर बाकायदे एक “अखिल भारतीय धर्म संसद” का गठन किया जाना चाहिए, जो अपने अधिवेशनों में ‘सर्वधर्म समभाव’ की नीति पर चलते हुए धार्मिक विवादों का समाधान सुझाये। बेशक, इस संसद की प्रक्रिया लोकतांत्रिक ही होनी चाहिए।
***
*** 
विश्व में जो भी बड़ी घटनायें घटती हैं, उनमें किसी व्यक्ति (या कुछ व्यक्तियों) की महत्वपूर्ण भूमिका जरुर होती है, मगर उस घटना की पटकथा “नियति” लिखती है। वर्षों तक, दशकों तक और कभी-कभी शताब्दियों तक नियति पटकथा तैयार करती है, तब जाकर समय आने पर किसी व्यक्ति (या समूह) के माध्यम से वह बड़ी घटना घटती है। हमें व्यक्ति या समूह की भूमिका दीखती है, मगर अक्सर हम नियति की भूमिका को नजरअन्दाज कर जाते हैं। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है- व्यक्ति या समूह या समाज कुछ करे या न करे, “नियति” अपना काम करती रहती है।
अगर इस इक्कीसवीं शताब्दी में उस धर्म विशेष के “उग्रवादी स्वरुप” का, जिसने कि आधे विश्व की नाक में दम कर रखा है, अन्त होना है, तो जान लीजिये कि इसके लिए नियति ने पटकथा पर काम शुरु कर दिया होगा। इसी प्रकार, अगर इसी शताब्दी में हिन्दू धर्म का “पुनर्जागरण” और भारत देश का “पुनरुत्थान” (दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मैं मानता हूँ) होना है, तो इसके लिए भी नियति ही परिस्थितियाँ तैयार कर रही होगी। ध्यान रहे, अभी इस शताब्दी का प्रायः नब्बे प्रतिशत समय भविष्य के गर्भ में है।
व्यक्तिगत रुप से मेरा मानना है कि-
1.   इस शताब्दी में ये दोनों बड़ी घटनायें जरुर घटेंगी;
2.   हिन्दू धर्म का जो पुनर्जागरण होगा, वह इसके ज्यादा व्यापक स्वरुप “भारतीयता” या “भारतीय संस्कृति” के रुप में होगा, न कि “हिन्दुत्व” या “हिन्दू धर्म” के नाम से;
3.   लोग चाहे किसी भी देश के वासी हों, किसी भी उपासना पद्धति को मानने वाले हों, “भारतीय” जीवन-शैली, यानि “भारतीय संस्कृति”, यानि “भारतीयता” को अपनाने में गर्व का अनुभव करेंगे।  
***
चूँकि उन भावी घटनाओं में किसी व्यक्ति-विशेष या एक व्यक्ति-समूह की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी और स्वाभाविक रुप से, उस व्यक्ति या समूह के हाथों में उस समय भारत की राजसत्ता होगी, अतः हम एकबार अनुमान तो लगाने की कोशिश कर ही सकते हैं कि आखिर देश वह कौन-सा राजनीतिक समूह है, जिसके नेतृत्व में सारे विश्व से घृणा, उन्माद एवं आतंक पर आधारित धार्मिक विचारधारा का अन्त होगा और इसके स्थान पर प्रेम, शालीनता एवं आध्यात्म पर आधारित धार्मिक विचारधारा का सारे विश्व में प्रसार होगा!
मेरा आकलन-
1.   वर्तमान में जिस राष्ट्रीय राजनीतिक दल के हाथों में सत्ता है, वह स्वभाव से हिन्दू धर्म विरोधी तो है ही, इसी के साथ भारतीयता-विरोधी भी प्रतीत होता है। इसके ज्यादातर नेताओं को आजकल नीच से भी नीच प्रवृत्तियों में लिप्त होते हुए, नैतिक एवं चारित्रिक पतन की सारी सीमाओं को लाँघते हुए देखा जा रहा है। किसी भी ‘आदर्शवादी’ बात का इनके यहाँ खूब मजाक उड़ाया जाता होगा- ऐसा लगने लगा है। अतः इस दल के माध्यम से भारत के पुनरुत्थान या भारतीयता के पुनर्जागरण की हम कल्पना नहीं कर सकते।
2.   जो राष्ट्रीय राजनीतिक दल आज विपक्ष में है, इससे आशा रखी तो जा सकती है, मगर इस आशा को निराशा में बदलते देर नहीं लगेगी। पिछली बार पाँच वर्षों तक सत्ता में बने रहने के दौरान इस दल ने देश की जनता को एक खास किस्म की “सुखानुभूति” (फीलगुड) की दशा में रखते हुए देश की सारी नीतियों को चुपके-से देशी-विदेशी पूँजीपतियों-उद्योगपतियों के फायदे के लिए बना डाला था- जबकि आम भारतीयों के जीवन स्तर को शालीन एवं खुशहाल बनाये बिना आप देश को महान नहीं बना सकते। फिलहाल ऐसा कोई लक्षण नहीं दीख रहा है कि उनकी सोच में कोई परिवर्तन आया है- अर्थात् अगली बार भी सत्ता पाकर वे वही करेंगे, जो उन्होंने पिछली बार किया था।
3.   सत्ता पक्ष व विपक्ष वाले दलों को अकर्मण्य मानते हुए इनके विरुद्ध जन्मे नये राजनीतिक दल से इसलिए कोई उम्मीद नहीं बँधती कि इनकी शुरुआत ही ‘नकारात्मक’ सोच के साथ हुई है। स्पष्ट कर दिया जाय- पेन्सिल का प्रयोग करते हुए अपनी लकीर को बड़ा बनाना सकारात्मक सोच है, जबकि इरेजर का प्रयोग करते हुए दूसरों की लकीरों को छोटा बनाना (ताकि स्वयं की लकीर बड़ी दीखे) नकारात्मक सोच है- इस दल ने अब तक तो नकारात्मक सोच का ही परिचय दिया है। दूसरी बात, इसके नेतागण दिल्ली का मोह त्याग कर देशाटन करते हुए अपने दल को ‘राष्ट्रीय’ स्वरुप दिलाने के मामले में गम्भीर नहीं दीखते।
4.   जहाँ तक 'विचारधारा' पर आधारित एक और प्रभावशाली राजनीतिक दल की बात है, उनकी “भारतीयता” अक्सर सन्देह के घेरे में रही है- अपने “वाद का विस्तार” कहकर एक पड़ोसी देश के भारत पर आक्रमण तक का वे समर्थन कर सकते हैं! बाकी जितने भी रजनीतिक दल इस देश में हैं, उनमें से किसी को इस योग्य नहीं समझा जा रहा है कि कोई समझदार व्यक्ति उनपर अपने विचार खर्च करे!
5.   चूँकि “नियति” अपना पटकथा तैयार कर रही है, अतः ऐसा लगता है कि समय आने पर कुछ अप्रत्याशित घटेगा इस देश में, कहीं से नेतृत्व की एक नयी धारा नये विचारों के साथ फूटकर बाहर आयेगी और जल्दी ही वह सारे देश में फैल जायेगी। "भारत का पुनरुत्थान" और "भारतीयता का पुनर्जागरण" एक नये, यानि अबतक अपरिचित, नेतृत्व के द्वारा होगा।
*******