बुधवार, 21 अगस्त 2013

156. निस्पृह?



      रुपया रसातल को जा रहा है; कोलगेट के दस्तावेज गायब किये जा रहे हैं; इधर चीनी घुसपैठ बढ़ रहा है, तो उधर पाकी हमले; पब्लिक ट्रेन से कटकर मर रही है; ललनायें दुष्कर्म का शिकार हो रही हैं; नौनिहाल स्कूली भोजन खाकर काल के गाल में समा रहे हैं... और मैं कभी बारिश के पानी में कागज की कश्ती चला रहा हूँ, कभी कृष्णसुन्दरी की छायाकारी कर रहा हूँ, तो कभी मोतीझरना यात्रा का चित्रकथा लिख रहा हूँ (आज ही प्रस्तुत करने वाला हूँ)... क्या हो गया है मुझे? क्या मैं निस्पृह हो गया हूँ- देश-दुनिया-समाज से?
       ***
       दरअसल मैं सारी-की-सारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का इन्तजार कर रहा हूँ। इस सड़े-गले नासूर पर पट्टियाँ या मलहम बदल-बदल कर आजमाने का पक्षधर मैं नहीं हूँ। मुझे आज की सम्पूर्ण राजनीतिक बिरादरी पर भरोसा नहीं है- सबके-सब जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
       ***
       मैं अपने लगभग सारे विचार व्यक्त कर चुका हूँ। अब कहने को मेरे पास कुछ नहीं है। हर दुर्गति पर अफसोस जताकर, आक्रोश व्यक्त कर, आँसू बहाकर कुछ नहीं होने वाला है। मैं पहले भी कह चुका हूँ- या तो मैं सैनिकों व नागरिकों के सहयोग से डिक्टेटर बनकर खुद ही सारी व्यवस्था को ठीक कर दूँ, या फिर इस देश को अराजकता की ओर फिसलते हुए, रसातल में समाते हुए, असफल राष्ट्र बनते हुए देखता रहूँ... कोई तीसरा रास्ता मेरे पास नहीं है।
       ***
       इसे मेरी सफाई समझी जाय कि मैं अब देश-दुनिया-समाज की बातें छोड़कर ललित किस्म की बातें क्यों ज्यादा लिखने लगा हूँ। यह फैसला मुझे जनवरी में ही लेना था- 2012 के बाद देश के बारे में नहीं सोचना है- यह तय कर रखा था। मगर दामिनी काण्ड ने मुझे विचलित कर दिया था- अब तक उसके दरिन्दों को भी लटकाया नहीं गया है।
       इस देश के 'अन्तरिक्ष विभाग' तथा 'परमाणु विभाग' के अलावे मैं किसी विभाग, किसी व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं रखता और सबके ध्वस्त होने की कामना करता हूँ... ध्वंस के बीज से ही नया निर्माण शुरु होगा।
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शनिवार, 17 अगस्त 2013

"सरकारी बैंक" तथा "ईटालियन सैलून"



       कल के अखबार में खबर थी कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री नाराजगी जता रहे हैं कि बैंक वाले ठीक से काम नहीं करते, जिस कारण राज्य की गरीब जनता आज भी महाजनों के चंगुल में फँसी है। इस "महाजनी" लूट के खिलाफ ही कभी सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव ने आन्दोलन चलाया था। उनके अनुसार बैंक वाले खाता खोलने के पचासों चक्कर लगवाते हैं, ऋण देने में कोताही बरतते हैं, वगैरह-वगैरह।
       आज के अखबार में एक विज्ञापन देखा- देश के वित्तमंत्री महोदय भारतीय स्टेट बैंक की 15,000वीं शाखा का उद्घाटन करने जा रहे हैं।
       ***
       मुझे दोनों महानुभावों से कुछ कहना है।
       हेमन्त सोरेन साहब, जब सेना "मुनाफा" नहीं कमाती, पुलिस मुनाफा नहीं कमाती, न्यायपालिका मुनाफा नहीं कमाती, डी.सी., बी.डी.ओ. से लेकर कर्मचारी, चपरासी तक का विशाल अमला मुनाफा नहीं कमाता, विधायक-सांसदों की फौज मुनाफा नहीं कमाती, तो एक ऐसे सरकारी बैंक की स्थापना करने से आपलोगों को किसने रोका है, जो "मुनाफा" न कमाये, बल्कि देश/राज्य के सामाजार्थिक उत्थान के लिए काम करे? इसकी शाखायें दूर-दराज तक फैली हों, इसके स्टाफ को सरकारी वेतन मिले, यहाँ सबका खाता खुले, सबको ऋण मिले, वगैरह-वगैरह। क्यों आपलोग यह चाहते हैं कि "मुनाफा" कमाने वाली एक संस्था ही यह सब काम करे?
       (अगर ऐसे "सरकारी" बैंक का "खाका" चाहिए, तो वह मैंने तैयार भी कर रखा है- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/2009/12/2.html )  
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       चिदम्बरम साहब, मेरे एक दोस्त का कहना है कि स्टेट बैंक को चाहिए कि वह नयी-नयी शाखायें खोलने में कम ध्यान दे और जो शाखायें खुली हुई हैं, वहाँ स्टाफ बढ़ाये। उस दोस्त ने स्टेट बैंक को छोड़कर किसी और बैंक की सेवा लेनी शुरु कर दी है।
       हो सकता है, नगरों-महानगरों में स्टेट बैंक की शाखायें चकाचक होती हों, स्टाफ भरपूर होते हों और मूलभूत सुविधायें भी उपलब्ध होती हों, मगर मैंने दूर-दराज के इलाकों में स्टेट बैंक की कुछ शाखाओं को देखा है और तकरीबन सभी जगह स्थिति एक-जैसी ही मिली है- सैकड़ों की रेलम-पेल को सम्भालने के लिए एकाध स्टाफ, खटारा कम्प्यूटर, लचर लिंक, कबाड़खाने जैसा वातावरण; शौचालय-पार्किंग की बात छोड़िये, पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं!
मूलभूत सुविधाओं से रहित इन शाखाओं की यह स्थिति देखकर मुझे बरबस "इटालियन सैलून" की याद आ गयी है! शायद आप चौंक गये हों। मैं भी चौंका था, जब हाई स्कूल के दिनों में एक दोस्त ने बताया था कि वह तो इटालियन सैलून में बाल कटवाता है। बाद में उसने राज खोला कि रेलवे स्टेशन परिसर में बैठने वाले नाईयों से वह बाल कटवाता है, जहाँ सुविधा के नाम पर सिर्फ एक छतरी जमीन से गड़े एक छड़ से बँधी होती है- धूप से बचने के लिए। चूँकि यहाँ बाल काटने वाला और कटवाने वाला दोनों "ईंट" पर बैठते हैं, इसलिए ऐसे सैलूनों को "ईटालियन" सैलून कहना चाहिए- उसका कहना था।
(प्रसंगवश, ऐसे सैलून बहुत दिनों से मेरी नजर से नहीं गुजरे हैं- शायद बहुत ही अन्दरुनी हिस्सों में अब भी ये पाये जाते हों।)
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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

155. स्वतंत्रता दिवस: 15 अगस्त बनाम 21 अक्तूबर



हो सकता है कि मेरे बहुत-से साथी न जानते हों कि भारत की आजादी के लिए "15 अगस्त" की तारीख को इसलिए चुना गया था अँग्रेजों द्वारा कि इसी दिन दो साल पहले जापान ने घुटने टेके थे
अतः 15 अगस्त को "भारत के कुएं" में रहते हुए हमारा जश्न मनाना तो शोभनीय है, मगर जब हम इस कुएं से बाहर निकल कर "विश्व के समन्दर" में आयेंगे, तो हम पायेंगे कि यह बड़ा ही दर्दनाक दिन है...
एक उद्धरण:  
"The date August 15 was also carefully chosen by the British. It was on this very day that Japan surrendered in 1945. What better way to thwart any possible Indo-Japanese linkage in future than to make India (and South Korea) celebrate while Japan remembers its humiliation! Specially relevant in the days of 1947 when the stories of Japanese support to Subhas Chandra Bose's Indian National Army were a household word in India!"
       ***
       व्यकिगत रुप से मैं 21 अक्तूबर की तारीख को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाये जाने का पक्षधर हूँ- क्योंकि इसी दिन 1943 को "स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार" (आरज़ी हुकूमत-ए-आज़ाद हिन्द / Provisional Government of Free India) की स्थापना हुई थी

      (3.4 आरजी हुकुमत-ए-आजाद हिन्द)

      जरा देखूँ तो सही, कितने लोग मेरी भावना के साथ हैं...

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रविवार, 11 अगस्त 2013

154. "ना-पाक"-इस्तान


एक होता है- लड़ते हुए शहीद होना- यह अलग मामला है- आमतौर पर अपने यहाँ इसपर फख्र किया जाता है. मगर जब सीज-फायर का उल्लंघन करते हुए धोखे से किसी सैनिक को मारा जाता है, तो यह शर्म की बात होती है. ...और मार कर सैनिक का सर काटकर ले जाना- ट्रॉफी के रुप में- यह हद से ज्यादा शर्मनाक है! 


सारी दुनिया में एक पाकिस्तानी कौम ही है, जो ऐसा कर सकती है. मुझे नहीं लगता कि चीनी सैनिक कभी भारतीय सैनिकों पर धोखे से हमला करेंगे, या उनका सर काटकर ले जायेंगे. एक नीच कौम ही ऐसा कर सकती है. और उस नीच कौम से बातचीत? छिः! 

(प्रसंगवश, 1962 में चीन का आक्रमण 'धोखा' नहीं था- तिब्बत पर चीन के बलात् अधिग्रहण के साथ ही युद्ध की पटकथा लिखी जाने लगी थी. 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' की रेत में सिर गाड़े सिर्फ नेहरूजी के लिए यह 'धोखा' था- बाकी सभी जानते थे कि चीन आक्रमण करने वाला है.)  

सोचिये कि जब धोखे से मारे गये सैनिकों के शव उनके घरों में पहुँचते होंगे, तो घर वालों पर क्या बीतती होगी! वे फख्र करें भी तो कैसे इस शहादत पर? 

और हमारे नेता? शहीदों की तस्वीर तो छोड़िये, नामपट्ट तक संसद भवन की दीवारों पर नहीं लगते. हमसे बेहतर तो अँग्रेज थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ते हुए शहीद होने वाले भारतीय सैनिकों के नाम खुदवा कर बाकायदे "इण्डिया गेट" बनवा दिया! 

अगर एक नेता के मुँह से यह निकल जाता है कि इन सैनिकों को तो तनखा मिलती ही है शहीद होने के लिए- तो फिर जान लीजिये कि आज के सारे राजनेताओं के मन की यह बात है! 

कम-से-कम पाक-अधिकृत काश्मीर में चलने वाले आतंकवादी शिविरों पर तो भारत आक्रमण कर ही सकता है- क्योंकि भारत इसे अपना हिस्सा बताता है. अगर युद्ध की शुरुआत हो जाय, तो हो जाय- डर क्या है? खत्म कर दिया जाय पाकिस्तान नामक राष्ट्र को, उसकी सेना को, उसकी गुप्तचर संस्था (आई.एस.आई) को और तालिबानी मदरसों को! बना दिया जाय पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान और पख्तूनिस्तान को नये राष्ट्र!

हो सकता है कि चीन और अमेरिका इस सैन्य अभियान का समर्थन न करे, ऐसे में भारत को चाहिए कि वह रूस को भरोसे में ले. 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

153. मैं सही रास्ते पर हूँ (भाग-2)



       पिछले साल 29 जुलाई को मैंने इस ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था- इसी नाम से- अखबार में कुछ लेखों को पढ़ने के बाद। (मैं सही रास्ते पर हूँ...)
       पिछले दिनों प्रो. अरूण कुमार (जे.एन.यू.) का साक्षात्कार पढ़ने के बाद फिर इसी शीर्षक के इस्तेमाल के लिए मैं बाध्य हुआ।
       बात ऐसी है कि मैं अक्सर कुछ बातों को दुहराता हूँ, जैसे-
1.       भारत द्वारा विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों को मानने से इन्कार करना (बशर्ते कि इन्हें संयुक्त राष्ट्र के अधीन न ले आया जाय और इनकी नीतियों को गरीबपरस्त न बनाया जाय।)
2.       अमेरिका, यूरोप, ऑस्टेलिया के बजाय अफ्रिकी, एशियायी और दक्षिणी अमेरिकी देशों से मित्रता बढ़ाना।
3.       शोषण, दोहन, उपभोग की बजाय समानता, पर्यावरण-मित्रता एवं उपयोग पर आधारित आदर्श विश्व व्यवस्था का निर्माण करना।
4.       इस व्यवस्था में भारत का नेतृत्व होना।
5.       विश्व-व्यापार में 1:1 का अनुपात अपनाना। 
6.       मैं तो एक सम्पूर्ण "भारतीय कम्प्यूटर प्रणाली" तक की बात करता हूँ।
7.       नयी व्यवस्था कायम करने के लिए मैं दस वर्षों के लिए पूरी शासन-प्रणाली ही बदलना चाहता हूँ।

***
बहुत-से लोगों को लगता होगा कि इन सबसे भारत दुनिया में अलग-थलग पड़ जायेगा।
मुझे भी लगता था कि शायद मेरे-जैसा विचार कोई नहीं रखता होगा। मगर देखा कि जे.एन.यू. के अर्थशास्त्री प्रो अरूण कुमार लगभग यही बातें कह रहे हैं। उनके साक्षात्कार से उद्धृत कुछ अंश:
   मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है. लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल असर पड.ता हो.
ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो. भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है.
भारत, चीन, ब्राजील जैसे बडे. देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है. भारत में इतने संसाधन हैं कि यहां सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है. इससे वैश्‍वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग नहीं पडे.गा.
आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं. देश में पब्लिक ट्रांसपोर्स सिस्टम पर्याप्त नहीं है. लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने लगें तो पेट्रो पदार्थकी खपत दस गुनी कम हो जायेगी. 
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       पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और सांसदों की विलासित बढ.ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढे. हैं. अरबपति सांसदों की संख्या बढ. रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड. रुपये के चंदे मिल रहे हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?...
       भारत में राजनेता अपने आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को पब्लिक सर्वेंट मानते हैं....
       पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी. देश में संभ्रांत वर्ग केंद्रित नीति अपनायी गयी. इससे संसद में करोड.पति सांसद आने लगे. राजनीतिक पार्टियां अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं....
       असल में विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है. यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र है. इसी धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है. सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं....
       मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है.
       ***
       कहने की आवश्यकता नहीं, मैं सही रास्ते पर ही हूँ...
       *****
(उनका पूरा साक्षात्कार पढ़ने के लिए:
मुख्य अंश पढ़ने के लिए:

152. भगत सिंह क विचारों को सरकारी मान्यता?


आखिरकार भारत सरकार ने अमर शहीद भगत सिंह की मुखाकृति वाले  पाँच रुपये के सिक्के को जारी कर ही दिया।
इसे क्या समझा जाय- हमारी सरकार ने भगत सिंह के विचारों को मान्यता देना शुरु कर दिया? 
अगर ऐसा ही है, तो फिर लगे हाथ शहीदे-आजम के विचारों को भी जान लिया जायः-

भगत सिंह का एक आलेख साप्ताहिक "मतवाला" (वर्ष-2, अंक- 38) में 16 मई 1925 को बलवन्त सिंह के नाम से प्रकाशित हुआ था. "युवक" शीर्षक वाले इस आलेख में अमेरिका के एक युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी का उल्लेख करते हुए भगत सिंह लिखते हैं:

"जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलन्त घोषणा करने का साहस भी है कि 'We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man's duty to destroy that Government.' अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है.
"ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नीन्द में पड़ा बे-खबर सो रहा है. उठ, आँखें खोल, देख, प्राची दिशा का ललाट सिन्दुर-रंजित हो उठा. अब अधिक मत सो. सोना हो, तो अनन्त निद्रा की गोद में में जाकर सोता रह. कापुरुषता की क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठ-
      'Farewell Farewell My true Love
            The army is on move,
            And if I stayed with you Love,
            A coward I shall prove.'
            "तेरी माता, तेरी प्रातःस्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामांचला आज फूट-फूट कर रो रही है. क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसकत्व परक़ यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओं की एक-एक बून्द की सौगन्ध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वन्देमातरम! 
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भगत सिंह के आलेख वाला अंश : "अहा जिन्दगी" (अगस्त'2013) से साभार 


शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

151. "विखण्डन" व "संयोजन"- साथ-साथ! (प्रसंग: राज्यों का पुनर्गठन)


       एक राष्ट्र को कई राज्यों में बाँटना अगर "विखण्डन" है, तो कई राज्यों को एकसूत्र में बाँधना "संयोजन"। अपने भारत में दोनों प्रक्रिया को साथ-साथ चलाने की जरुरत है। हालाँकि मैं जिस ढंग के पुनर्गठन की बात कर रहा हूँ, वह वर्तमान व्यवस्था में सम्भव नहीं है- यह भी सच है।
       मेरे हिसाब से भारत को कुल-मिलाकर 54 राज्यों में बाँटने की जरुरत है। यह "अन्तिम" पुनर्गठन होना चाहिए- यानि इसके बाद हजार-दो हजार वर्षों तक पुनर्गठन का, या किसी नये राज्य के गठन का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए!
       आप कहेंगे, 54 राज्यों का तो नाम भी याद नहीं रखा जा सकता? और फिर 54 ही क्यों- 53 या 55 क्यों नहीं? इन सवालों का जवाब मिल रहा है।
       सबसे पहले यह बता दिया जाय कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए जनता की इच्छा या माँग के साथ भौगोलिक स्थिति, सभ्यता-संस्कृति, भाषा, प्रशासनिक सुविधा को भी ध्यान में रखा जाय।
       54 राज्यों का गठन होने के बाद एक अँचल के 9 राज्यों को एक "अँचल" के रुप में संगठित किया जाय। देश में कुल 6 अँचल होने चाहिए- 1. उत्तरांचल, 2. दक्षिणांचल, 3. पूर्वांचल, 4. उत्तर-पूर्वांचल, 5. पश्चिमांचल और 6. मध्यांचल। इस प्रकार, किसी को एक पंक्ति में 54 राज्यों के नाम याद रखने की जरुरत नहीं पड़ेगी। सबको सिर्फ 6 अँचलों के नाम याद रखने हैं। अब एक अँचल के अन्दर के जितने भी राज्यों के नाम याद रह जायं, उतना ही काफी है!
       ये अँचल देश की "सांस्कृतिक" इकाई होंगे, न कि "राजनीतिक"। यह एक "अँचलपाल" के अधीन होगा, जिनकी भूमिका दोहरी होगी- 1. वे अपने अँचल के 9 राज्यों के लिए "राज्यपाल" की भूमिका निभायेंगे और 2. देश के लिए वे "उपराष्ट्रपति" की भूमिका में होंगे।
       54 संख्या के पीछे कोई रहस्य या टोटका नहीं है। दरअसल, आज जो तीन तरह के पहचानपत्र प्रचलन में हैं- 1. मतदाता पहचानपत्र, 2. 'पैन' कार्ड और 3. 'आधार' कार्ड,- इन तीनों को एकीकृत करते हुए एक "राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र" बनाने की जरुरत है। इसमें लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में मतदान के लिए बाकायदे "विन्दु" भी होंगे, जिन्हें मतदान के दौरान बाकायदे "पंच" भी किया जायेगा। यानि मतदान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए और भाग न लेने वालों पर जुर्माना लगना चाहिए। कुल-मिलाकर यह एक "बहुद्देशीय" पहचानपत्र होगा।
       अब इस पहचानपत्र को जब नम्बर देंगे, तब यह 54 की संख्या काम आयेगी। एक अँचल में 9 राज्य हो गये, अब एक राज्य में 9 जिले/महानगर  हों, एक जिले/महानगर में 9 प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर, एक प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर में 9 थाने और एक थाने में 9 पंचायत/वार्ड हों।
       अब देखिये कि पहचानपत्र में सिर्फ "6 अंक" डालकर हम किसी भी नागरिक के अँचल, राज्य, जिला, प्रखण्ड, थाने और पंचायत का पता लगा सकते हैं! इसके बाद के तीन या चार अंक धारक नागरिक की अपनी संख्या होगी, जिसे वह याद रखेगा।  
       हालाँकि व्याख्या की गुंजाइश अभी और है, मगर 'थोड़ा कहा, बहुत समझना' के तहत बात समाप्त की जा रही है और ऊपर कही गयी एक बात को फिर से दुहराया जा रहा है: यह सच है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा पुनर्गठन सम्भव नहीं है!
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रविवार, 28 जुलाई 2013

150. विकास बनाम खुशहाली



       मैं अक्सर सोचता था कि आखिर मैं अपनी "खुशहाली" वाली अवधारणा को कैसे प्रकट करूँ कि यह "विकास" से अलग लगे। इस पर विचार करने के लिए मुझे थोड़ा लम्बा समय चाहिए था और मैं अब तक टाल रहा था।
       भला हो अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला महोदय का, जिन्होंने एक लेख "सुख चाहिए या भोग" लिखकर मुझे ज्यादा विचार करने से बचा लिया।
       लेख थोड़ा जटिल लग सकता है, मगर पढ़ा जा सकता है।
       विकास "खपत" या "उपभोग" पर आधारित है, जबकि खुशहाली में व्यक्ति के भौतिक विकास के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखा जायेगा।
       भूटान ने बिल्कुल इसी रास्ते को चुना है- वहाँ जी.डी.पी. से नहीं, बल्कि जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को मापा जाता है।
       ***
खैर, ई-पेपर में डॉ. झुनझुनवाला का लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक किया जा सकता है:
और जी.एन.एच. की जानकारियों के लिए यहाँ:
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शनिवार, 20 जुलाई 2013

149. थोड़ा कहा...



       इस देश में जो बात मुझे अच्छी लगती है, वह है- "अभिव्यक्ति की आजादी"! वर्ना जिस तरह की बातें मैं इण्टरनेट पर (ब्लॉग या सोशल मीडिया पर) लिखता हूँ, अगर मैं चीन का नागरिक होता, तो अब तक जेल में सड़ रहा होता, या फिर लटका दिया गया होता!
       आशा है, यह आजादी सदा बनी रहेगी।
       इसके अलावे और कोई अच्छी बात, तारीफ करने लायक बात मुझे देश में नजर नहीं आती। क्या राजनीति, क्या अर्थनीति, क्या पुलिस-प्रशासन-न्याय, क्या शिक्षा, क्या स्वास्थ्य, क्या रोजगार... हर तरफ निराशा और हताशा ही नजर आ रही है... कहीं उम्मीद की छोटी-सी चिन्गारी भी नहीं दीखती!
हाँ, एक मिसाइल बनाने वाला विभाग है, और दूसरा कृत्रिम उपग्रह एवं इनका प्रक्षेपक बनाने वाला विभाग है, जो सही काम करते नजर आते हैं- बाकी सबके-सब अपने-आपको तथा देश की जनता को बस उल्लू ही बना रहे हैं!
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       देश की अर्थनीति बहुराष्ट्रीय निगम तथा अमीर देश तय कर रहे हैं। अमीर देश अगर खुले-आम नहीं करते, तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक (WB) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से ऐसा करते हैं। देश की घरेलू नीतियाँ पूँजीपती एवं माफिया-सरगना तय करते हैं। हमारे राजनेताओं की हैसियत इन सबके "दलाल" से ज्यादा नहीं रह गयी है। वैसे, यह सिर्फ भारत का मामला नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आजाद हुए बहुत-से देशों में ऐसी स्थिति है, जहाँ का राजनेता वर्ग अमीर देशों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा माफिया का दलाल बन गया है।
       ***
       कई मायनों में भारत दुनिया के बाकी सभी देशों से अलग है। यह आध्यात्म-ज्योतिष, ज्ञान-विज्ञान से लेकर संगीत और स्थापत्य तक हर क्षेत्र में विश्वगुरू था और आज जबकि दुनिया के ज्यादातर देश उपभोग के घोड़े पर सवार होकर विकास के अन्धे रास्ते पर दौड़ लगा रहे हैं, आने वाले समय में भारत को ही फिर एकबार विश्वगुरू की भूमिका निभानी होगी। (हालाँकि भूटान ने "जीने की सही राह" अपना ली है- वहाँ जी.डी.पी. के बजाय जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को नापा जाता है।)
       वह समय कब आयेगा? मेरा हिसाब कहता है कि चूँकि भारत के पतन की शुरुआत 11वीं सदी से हुई थी इसलिए इसका पुनरुत्थान 21वीं सदी में ही होना चाहिए। 2011 में अन्ना हजारे के लिए और फिर 2012 में दामिनी के लिए जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे थे, उससे लगा था कि परिवर्तनों का दौर शुरु हो गया है, मगर जल्दी ही सब सामान्य हो गया।
       ***
       व्यक्तिगत रुप से मैं "अनशन" का समर्थक नहीं हूँ। अगर मुझे देश में सुव्यवस्था लानी है, तो मैं पहले कुव्यवस्था के नाभिक को काटकर अलग करूँगा और उसके बाद खुद ही सुव्यवस्था कायम करूँगा। मैं इसके लिए याचना का रास्ता तो कभी नहीं चुनूँगा!
       अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव और अरविन्द केजरीवाल ने अनशन करते हुए याचना का रास्ता चुना- यह भी ठीक है- बिना एक सेना बनाये या सेना का नैतिक समर्थन लिये बिना आप बगावत कर भी तो नहीं सकते! मगर मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि तीनों ही मृत्यु से डर गये थे! ...और मृत्यु से डरने वाले भारत-जैसे महान देश के "दिग्दर्शक"- स्टेट्समैन तो नहीं ही हो सकते!
       यह सच है कि मैं नेताजी का भक्त हूँ, मगर मैं यह स्वीकार करता हूँ कि गाँधीजी के अन्दर गजब का नैतिक बल था- वे मृत्यु से नहीं डरते थे! ...प्रसंगवश, मैं यह भी बता दूँ कि गाँधीजी ने कुछ गाँवों का एक समूह बनाकर उन्हें "आत्मनिर्भर" बनाने की जो कल्पना की थी- उसका मैं कायल हूँ!
       ***
       इस देश के बारे में जितना मैं सोच सकता था, जितना लिख सकता था, उतना मैं अपने दो ब्लॉग ("खुशहाल भारत" और "देश दुनिया") में लिख चुका हूँ। अब जो भी लिखूँगा, वह या तो व्याख्या होगी, या दुहराव। इसलिए अब देश के बारे में लिखना या सोचना मैं कम कर रहा हूँ। अब तो प्रतिक्रिया तक देने का मन नहीं करता- चाहे 4 किशोरियों के साथ सामूहिक बलात्कार हो जाये; या स्कूली भोजन खाकर 23 बच्चे काल के गाल में समा जायें!
       अब अगर कुछ बचा है, तो वह है अपनी सोच, अपने विचारों को जमीन पर उतारना। देश की आम जनता, यहाँ तक कि प्रबुद्ध नागरिकों और बुद्धीजीवियों से भी, मैं कोई खास उम्मीद नहीं रखता- सबकी सोच लकीर के फकीर वाली है- अपने महान संविधान और महान लोकतंत्र के दायरे से बाहर जाकर कुछ सोचना उनके लिए पाप है। दूसरी बात, जैसे "सी" ग्रेड की फिल्में होती हैं, वैसे ही सी-ग्रेड की राजनीति भी होती है- ज्यादातर लोगों को यही पसन्द है।
ऐसे में, उम्मीद सिर्फ यही बची है कि अगर भारतीय थलसेना का साथ मिल जाय, तो मैं दस वर्षों के अन्दर ही इस देश की किस्मत सँवार दूँ! अगर नियति ने ऐसा तय नहीं कर रखा है, तो मैं चुपचाप देश को रसातल में जाते हुए देखता रहूँ! बस यही दो विकल्प है मेरे पास। न तो आक्रोश व्यक्त करने से कुछ होगा, न याचना करने से, और न ही रोने से। या तो मैं डिक्टेटर बनकर- (बेशक, एक "चाणक्य सभा" की मदद से)- खुद ही सब ठीक कर डालूँ, या फिर मामूली आदमी बनकर अपने चमन की बर्बादी को देखता रहूँ, जिसे शहीदों ने अपने खून से सींचा है- बीच का रास्ता मेरे पास नहीं है।
       ***
       अन्त में- आज की तारीख में जो लोग यह सोचते हैं कि "1935 के अधिनियम" पर आधारित अपने महान संविधान के तहत कायम महान "लोकतांत्रिक" व्यवस्था, जिसमें हर जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के 80 से 90 प्रतिशत नागरिकों का प्रतिनिधित्व "नहीं" करता है, में इसे हटाकर उसे और फिर, उसे हटाकर इसे सत्ता सौंप देने से सब ठीक हो जायेगा- वे मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं।
       ...सच्चाई यह है कि आज का हर राजनेता दलाल है बहुराष्ट्रीय निगमों का; अमीर देशों का; आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक, डब्ल्यूटीओ का; देशी अरबपतियों का और माफिया-सरगनाओं का, चाहे वह किसी भी दल का हो! इस वक्त हमें चाहिए एक देशभक्त, ईमानदार और साहसी डिक्टेटर, जो "आम" लोगों के लिए तथा "सम्पत्ति" में "फूलों से भी अधिक कोमल" हो, जबकि "खास" लोगों के लिए तथा "विपत्ति" में "वज्र से भी ज्यादा कठोर"!
       जब तक हम "लीक से हटकर" सोचना शुरु नहीं करेंगे- हम अपने मुल्क के पतन को नहीं रोक सकते!
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शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

148. शासक-प्रशासक, जनता, सेना तथा राष्ट्र



       सितम्बर'2012 में मैंने राजनीतिक परिवर्तन के 3 नियमों की खोज करते हुए एक लेख लिखा था- "राजनीतिक परिवर्तन के तीन नियम", जिसका 2रा नियम कहता है:
कोई भी जनविरोधी शासक तब तक राजगद्दी पर आसीन रह सकता है तथा चैन की नीन्द सो सकता है, जब तक कि उसके मन में वर्दीधारी जवानों की स्वामीभक्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न न हो।
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मिश्र के ताजा घटनाक्रम के बाद आज विचार करने पर मैं कुछ और नियमों तक पहुँचा-
नियम-1: किसी भी राष्ट्र की सत्ता की बागडोर "नागरिक" नेताओं के हाथों में होनी चाहिए- सेना को सत्ता से दूर ही रहना चाहिए।
नियम-2: जब नागरिक नेता माफिया एवं पूँजीपति के साथ गठजोड़ करके देश को लूटने लगे और इस लूट की बहती गंगा में प्रशासक भी अपने हाथ धोने लगें, तब नागरिकों का फर्ज बनता है कि वह-
(क)     पहले तो शासकों को चुनाव के माध्यम से बदलकर देखे;
(ख)     अगर चुनाव का अवसर नहीं मिलता है, या चुनाव में नेताओं को बदलकर देखने पर भी देश का भला नहीं होता है, तो "बगावत" करते हुए वह सड़कों पर उतर जाय।
नियम-3: जब भ्रष्टाचार, कुशासन, अराजकता और अनैतिकता के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरे, तब सेना का कर्तव्य बनता है कि वह "देश की भलाई" को ज्यादा महत्व दे, न कि "नमकहलाली" को; जनता का साथ देते हुए भ्रष्ट शासक, प्रशासक, पूँजीपति और माफिया को सत्ता से हटाये; और ईमानदार एवं देशभक्त लोगों की एक कार्यकारी परिषद को अन्तरिम शासन चलाने दे।
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ये नियम कहीं लिखे हुए तो नहीं हैं- मगर ऐसा होना ही चाहिए- अतः ये "शाश्वत" हैं।
मगर सेना से अक्सर कुछ गलतियाँ हो जाती हैं-
       गलती-1: कोई महत्वाकांक्षी सैन्य जेनरल खुद सत्ता की बागडोर थाम लेता है।
       गलती-2: किसी मुख्य न्यायाधीश या विरोधी पक्ष के किसी नेता को सत्ता की बागडोर थमा दिया जाता है।
       अतः फिर दुहरा दिया जाय कि भ्रष्टों को हटाने के बाद देश की सत्ता की बागडोर हमेशा एक "कार्यकारी परिषद" के हाथों में थमायी जानी चाहिए- जिसमें सभी क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हों, जिनका चरित्र अच्छा हो और जिनके खिलाफ जनता को शिकायत न हो।
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       स्पष्टीकरण: जिन देशों के नागरिक शासक अपने ही देश को लूटने-खसोटने का काम नहीं करते; माफिया, और पूँजीपति के साथ गठजोड़ नहीं बनाते; और प्रशासक अपने शासकों के लिए खैनी नहीं मलते, उस देश की सेना की बात यहाँ नहीं हो रही है। यहाँ बात वैसे देशों की हो रही है, जहाँ के "नागरिक शासन के सुधरने की गुंजाइश खत्म हो चुकी हो।"
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       सेना भी कई प्रकार की हो सकती है-
       प्रकार-1: समझदार सेना। मिश्र में 30 वर्षों से बुरी तानाशाही कायम थी, मगर सेना ने अपनी मर्जी से बगावत या तख्ता-पलट नहीं की। जब जनता ने बगावत किया, तब सेना ने तानाशाह शासक का आदेश मानने के बजाय जनता का साथ दिया।
       प्रकार-2: गुलाम सेना। चीन में (1989) थ्येन-आन-मेन चौक की बगावत एक महान नागरिक बगावत थी, मगर वहाँ की सेना ने (दुर्भाग्य से, उस सेना का नाम "जनता की सेना" है!) अपने साम्यवादी शासकों का आदेश माना, जबकि उन्हें भी दीखता है कि ये नेता अब "साम्यवादी" नहीं रहे- ये विशाल महलों में पूरी शानो-शौकत के साथ रहते हैं और दुनिया की नाक में दम करने का काम करते हैं।
       प्रकार-3: चापलूस सेना। इस प्रकार की सेना के सैनिक जवान और छोटे अफसर आमतौर पर अच्छे होते हैं, मगर ऊँचे दरजे के अफसर अक्सर चापलूस होते हैं- शासकों के। रिटायरमेण्ट के बाद गवर्नर वगैरह बनने का ख्वाब देखते हैं, अक्सर घूँस भी खाते हैं और कुछ दूसरे अनैतिक कामों में भी लिप्त होते हैं। देश किस ओर जा रहा है, इसे किधर ले जाना है- यह सब आकलन करने की क्षमता इनमें नहीं होती। ऐसी सेनायें अक्सर "उपनिवेशवादी साम्राज्य" की उपज होती हैं। अगर कभी योग्य व्यक्ति इन सेनाओं का सेनापति बन भी जाता है, तो उसे शासक तुरन्त हटा देते हैं।
       अपवाद: हाँ, बड़े अफसरों के आदेश का इन्तजार किये बिना छोटे अफसर और सैनिक जवान अगर जनता का साथ देने का फैसला ले ले, तो ऐसे देशों में भी बदलाव आ सकता है।  
       टिप्पणी: यहाँ मैं उस देश के नाम का जिक्र नहीं कर रहा हूँ कि इस 3सरे प्रकार की सेना कहाँ पायी जाती है- इसका अनुमान आप चाहें, तो स्वयं लगा सकते हैं।
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पुनश्च: 
बाद में पता चला कि मिश्र की सेना पर अमेरिका का वरदहस्त रहा है, फिर भी, पहली नजर में वह समझदार ही लगती है. 

147. तीन तरह के बदमाश शासक-प्रशासक



                एडवर्ड स्नोडेन प्रकरण सामने आने के बाद मैं बदमाश शासक-प्रशासकों के किस्मों पर विचार कर रहा था।
यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि बदमाश सिर्फ शासक और प्रशासक ही होते हैं- किसी भी देश के आम देशवासी आमतौर पर अच्छे होते हैं- ऐसा मेरा मानना है। व्यक्तिगत रुप से मैं चीन, जापान, कोरिया, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, भारत, पाक, बाँग्ला इत्यादि सभी देशों के "आम देशवासियों" को अच्छा मानता हूँ।
मेरा यह भी मानना है कि अगर "शासक" ईमानदार और सख्त हो जाये, तो "प्रशासक" तुरन्त सुधर जाते हैं, जिससे सारी व्यवस्था भी चाक-चौबन्द हो जाती है; अन्यथा शासन-प्रशासन-व्यवस्था इतना नीचे गिर जाती है कि उसकी व्याख्या के लिए घृणित शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा- जो फिलहाल मैं नहीं करना चाहता।
       खैर, तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ये बदमाश तीन तरह के होते हैं-
1.       खाँटी बदमाश। ये खुले आम बदमाशी करते हैं- जो करते हैं उसे सीना ठोंकर स्वीकार भी करते हैं। लोक-लिहाज की परवाह नहीं करते। चीन और उत्तर कोरिया-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में लाया जा सकता है। व्यवस्था बदलने पर ये आम तौर पर फाँसी ही चढ़ते हैं।  
2.       शरीफ बदमाश। ये बातें अच्छी करते हैं, मगर काम गुप्त रुप से बुरे करते हैं। जैसे, "लोकतंत्र" एवं "मानवाधिकार" की बातें करना और "बदनाम तानाशाहों" की मदद करना और लोगों के "ईमेल की जासूसी" करवाना। अमेरिका और ब्रिटेन-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में लाया जा सकता है। हाँ, पकड़े जाने पर ये आम तौर पर दोष स्वीकार करते हैं, माफी माँगते हैं, इस्तीफा देते हैं और सजा भी स्वीकार करते हैं।
3.       चोरी और सीनाजोरी वाले बदमाश। ये बेशर्म किस्म के बदमाश होते हैं, इनकी चमड़ी गैण्डे से भी ज्यादा मोटी, इनका दिमाग लोमड़ी से भी ज्यादा शातिर और इनकी भूख हाथी से ज्यादा तेज होती है। ये आपके सामने मुर्गे की टाँग भकोसेंगे, मगर कहेंगे यही कि वे शुद्ध शाकाहारी हैं! आप कहेंगे- आप तो मुर्गे की टाँग चेप रहे हैं, वे कहेंगे- यह तो विरोधियों की साजिश है मुझे बदनाम करने की। भारत, पाकिस्तान-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसे देश में अगर एक न्यायाधीश की आँखों के सामने कत्ल हो जाय, तो भी उस न्यायाधीश को बीस से तीस साल लग जाते हैं, हत्यारे को सजा देने में। एक डीसी के सामने गिनकर दस शव पड़े होंगे, तो भी वह यही कहेगा कि जाँच बैठायी गयी है, रिपोर्ट आने के बाद ही मृतकों की संख्या बतायी जा सकती है। ऐसे देशों में पुलिस को हफ्ता पहुँचाये बिना कोई भी गैर-कानूनी काम करना असम्भव होता है। जाहिर है कि यहाँ ये न दोष स्वीकार करते हैं और न ही इन्हें सजा मिलती है। मुकदमे तब तक चलते हैं, जबतक कि इनकी टाँगें कब्र में न लटक जायें और फिर स्वास्थ्य कारणों से उन्हें जेल नहीं भेजा जाता।  
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बुधवार, 26 जून 2013

146. देवभूमि: आपदा: राहत: निष्कर्ष

कार्टून: फेसबुक पेज "पवन टून" से साभार
       जैसे महाभारत में सिर्फ कृष्ण ही कृष्ण छाये हुए थे, वैसे ही देवभूमि की त्रासदी में बस भारतीय थलसेना, वायुसेना और भारत-तिब्बत सीमा वाहिनी के जवान ही जवान नजर आ रहे हैं- चारों तरफ- बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को बचाते हुए। कहाँ है मोटी पगार पाने वाला सरकारी अमला? कहाँ हैं, बीडीओ, सीओ, डीसी, डीडीसी तथा उनके स्टाफ वगैरह? कहाँ है आपदा प्रबन्धन वाला सरकारी विभाग?
       मुझे 2008 की कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ याद आ रही है। (उस वक्त मैं पूर्णिया में ही था- जब नेपाल की तराई में वीरनगर बराज का 'कुसहा' बाँध टूटा था और कोसी ने अपना रास्ता बदलते हुए रौद्ररुप धारण कर लिया था।) नीतिश बाबू को गुमान था कि उनके सुशासनी अफसर और कर्मी सब सम्भाल लेंगे। मगर या तो वे अफसर-बाबू मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे, या फिर पॉलीथीन शीट खरीदने के लिए कमीशन तय करने में जुट गये थे। तीन दिनों तक लोग तिल-तिल कर मरते रहे। चौथे दिन जब सेना उतरी, तब जाकर लोगों को सुरक्षित स्थानों तक लाने का अभियान शुरु हुआ।
       आखिर सैनिकों के भरोसे कब तक काम चलेगा?
       आखिर नागरिक अफसर-कर्मी कब अपनी जिम्मेवारी समझेंगे??
       क्या राहत कार्यों के लिए अलग से एक सेना नहीं होनी चाहिए???
       ***
       अगर मन्थन किया जाय, तो दो निष्कर्ष सामने आयेंगे-
       एक- देश के किशोरों-युवाओं के लिए "सैन्य शिक्षा" आवश्यक होनी चाहिए।
       दो- राहत-कार्यों के लिए अलग से एक सेना होनी चाहिए।
       ***
       मैंने बहुत पहले से ही इन विषयों को अपने घोषणापत्र में शामिल कर रखा है-  
28.4 उच्च विद्यालयों में (यानि 7 वीं से 12 वीं कक्षा तक) यूनिफ़ॉर्म और सैन्य शिक्षा को आवश्यक बनाया जाएगा- हालाँकि सैन्य शिक्षा कड़ाई से नही दी जाएगी।
40.1 सैन्य-जीवन एक पेशा तो है हीइसे 'सैन्य-शिक्षाके रूप में भी अपनाया जाएगा और इसके लिए दसवीं पास विद्यार्थियों को 8 वर्षों की सामान्य सेवा तथा 2 वर्षों की आरक्षित सेवा की शर्तों पर सेना में भर्ती किया जाएगा।
40.2 'सेना मुक्त विश्वविद्यालयकी स्थापना की जायेगीजो सैनिकों को उनकी 8 वर्षों की सेवा के दौरान स्नातकोत्तर (एम.ए.स्तर तक की शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
40.3 न्यूनतम 8 वर्षों की 'सैन्य शिक्षा प्राप्तयुवाओं को अन्यान्य सरकारी/निजी नौकरियों में प्राथमिकता एवं वरीयता दी जायेगीया फिर20 प्रतिशत अंकों का ग्रेसउन्हें दिया जाएगा।
39.7  विभिन्न प्रकार की त्रासदियों से निपटने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित एवंसुसज्जित एक 'देवदूत' बल का गठन किया जाएगा। (इनका निवास जिला स्तर पर बनने वाला 'खेल गाँव' (क्रमांक 26.6) होगा- इस प्रकार, आपात्कालीन स्थितियों में राहत कार्य का अपना प्राथमिक कर्तव्य निभाने के अलावे बाकी समय में वे 'खेल गाँव' की देखभाल भी कर सकेंगे।) 
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अन्त में- यह सही है कि भारतीय वायु सेना में रहते हुए मैंने किसी बचाव कार्य में भाग नहीं लिया, मगर मुझे गर्व है कि मुझे अपनी अपनी युवावस्था के 20 साल इस सेना को प्रदान करने का अवसर मिला।