बुधवार, 14 नवंबर 2012

मेरी तरफ से आप पाँच बातें याद रखिये-

टीवी पर समाचार देख रहा था
      महाराष्ट्र के कोल्हापुर में गन्ना किसानों को पकड़-पकड़ कर पुलिस वाले लाठियों से पीट रहे थे। किसान अपना हक माँग रहे थे; जबकि पुलिस-प्रशासन और बेशक शासन भी, चीनी मिल मालिकों के पक्ष में मुस्तैद था!
      बंगाल के नदिया में पुलिस वाले मकानों की छत पर चढ़कर नागरिकों पर गोलियाँ दाग रहे थे और शासन गोलीबारी से इन्कार कर रहा था! नागरिकों को किसी स्थान विशेष पर जगद्धात्री पूजा करने की अनुमति प्रशासन नहीं दे रहा था।
      उत्तर-प्रदेश में इलाहाबाद के पास (करछ्ना में) एक ऊर्जा परियोजना रद्द करके सरकार किसानों से चार साल पहले दिया गया मुआवजा वापस माँग रही है। ज्यादातर किसानों का मुआवजा दलाल हजम कर गये हैं और किसानों की जमीन चार-पाँच वर्षों से परती पड़ी है। किसानों का कहना था कि सरकार उन्हें गोली मार दे... वर्ना उन्हें अब आत्महत्या करनी ही पड़ेगी!
      उधर आँग-सान सू-की का कहना था कि भारत ने बर्मा के लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन से दूरी बना ली है और सैन्य शासन से नजदीकियाँ बना ली है।
      चीन फिर दलाई लामा को गरिया रहा है, जबकि दलाई लामा कभी भी चीन के खिलाफ अपशब्द नहीं बोलते। उन्होंने तो तिब्बत की आजादी की माँग तक छोड़ दी है। उनका कहना है कि चीन तिब्बत का रक्षा-मुद्रा-विदेश-संचार अपने पास रखे, बाकी तिब्बतियों के पास रहने दे। 70 तिब्बती अब तक आत्मदाह कर चुके हैं। मगर दुनिया के किसी भी देश में तिब्बत के समर्थन में उत्तेजना नहीं आयी- भारत ने कभी इस मसले पर मुँह नहीं खोला।
      यह सब क्या है? क्या एक संप्रभु, लोकतांत्रिक, समाजवादी, जनकल्याणकारी राज्य में यह सब शोभा देता है?
      गलती कहाँ हुई? क्यों भारत एक लुँज-पुँज, जनविरोधी, अमीपरस्त देश बना हुआ है?
      मुझे लगता है, देश के आम लोग, जो अफसरों-बाबुओं की दुत्कार सहते हैं, पुलिस की लाठी-गोलियाँ खाते हैं- वे ही पहले जिम्मेदार हैं। क्योंकि वे मायावती से लेकर लालू यादव तक, जयललिता से लेकर करुणानिधि तक, और भाजपा से लेकर काँग्रेस तक की रैलियों में हुजुम बनाकर दौड़े चले आते हैं!
      दूसरे स्थान पर जागरुक (आज की शब्दावली में फेसबुकिये) नागरिक जिम्मेदार हैं, क्योंकि वे येन-केन-प्रकारेण किसी एक नेता या किसी एक नीति को हर मर्ज की दवा साबित करने पर तुले हैं और अन्धभक्तों की तरह व्यवहार करते हुए दूसरे नेता या नीति के समर्थकों की बस खिंचाई करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं- कहीं कोई सकारात्मक सोच नहीं है!  
      तीसरे स्थान पर अच्छे नेता जिम्मेवार हैं, जो सिर्फ आदर्शवादी बातें करते हैं- कोई स्पष्ट कार्ययोजना नहीं बनाते। चाहे अन्ना हजारे हों, या स्वामी रामदेव; चाहे जेनरल वीके सिंह हों या अरविन्द केजरीवाल; या फिर सीएजी विनोद राय ही क्यों न हों। सबके-सब चाहते हैं कि यह वर्तमान सड़ी-गली व्यवस्था ही ठीक से काम करने लगे।
      हद होती है। ऐसा कभी हो सकता है?
      ***
जिस दिन अन्ना हजारे तिहाड़ से रिहा हुए थे, उस दिन लाखों लोग उनके साथ थे। किसने रोका था संसद पर कब्जा करने और नयी व्यवस्था कायम करने से? नहीं, हम तो राजघाट जायेंगे! जेनरल सिंह को भी किसने रोका था? अब वे भला क्या बदलाव ला सकते हैं? अरविन्द केजरीवाल को क्या लगता है- जो लोग जात-पाँत, पैसा-दारू देखकर मतदान करते हैं, उन्हें वे समझा लेंगे? स्वामी रामदेव क्या समझते हैं- भाजपा की सरकार बन गयी, तो उनकी आर्थिक नीतियाँ काँग्रेस की आर्थिक नीतियों से अलग हो जायेंगी?   
      मेरी तरफ से आप पाँच बातें याद रखिये-
1.   देश में जितनी भी बुरी शक्तियाँ हैं, वे राजनेताओं से शक्ति प्राप्त करती हैं- कोई फर्क नहीं पड़ता कि राजनेता सत्ता पक्ष में है या विपक्ष में।
2.  चूहे कभी खुद अपने लिए चूहेदानी का निर्माण नहीं करेंगे- इन राजनेताओं से व्यवस्था-परिवर्तन की उम्मीद रखना मूर्खता की पराकाष्ठा है।
3.  अगर आपको बदलाव लाना है, तो सत्ता की बागडोर थामनी ही होगी- सिर्फ आन्दोलन के बल पर वार्ड स्तर पर बदलाव लाया जा सकता है, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं।
4.  अच्छे लोगों की पार्टी बनाकर, मतदाताओं को समझा-बुझाकर, चुनाव जीतकर, संसद में बहुमत सिद्ध करके बदवाल लाने की कोशिश सफल नहीं हो सकती- कम-से-कम, इस विचित्र देश में।
5.  हमारे पास समय कम बचा है- देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, प्रसाशनिक, आर्थिक, न्यायिक, शैक्षणिक, पर्यावरणीय, आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा, इत्यादि हर एक व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है- भारत असफल राष्ट्र बनने की कगार पर खड़ा है! 
अब आप कहेंगे कि फिर रास्ता क्या है? पहले आप खुद सोचिये... मेरे पास तो एक रास्ता है ही!   

बुधवार, 7 नवंबर 2012

“ज्ञान की प्राप्ति”






मुझे कभी-कभी हँसी आती है। जिस ज्ञान की प्राप्ति मुझे 1995-96 में हो गयी थी कि देश का कोई भी (दुहरा दूँ- कोई भी!) राजनीतिक दल देश का भला नहीं कर सकता, उस ज्ञान की प्राप्ति अब जाकर लोगों को धीरे-धीरे हो रही है....!
      आज के ‘प्रभात खबर’ में छपा आलेख एक कुजात स्वयंसेवक का पत्र इसका उदाहरण है।
बचपन में मैं भी संघ की शाखाओं में गया हूँ, मगर जब मुझपर बैठकों में शामिल होने के लिए दवाब डाला जाने लगा, तो मेरे पिताजी ने मुझे सावधान कर दिया था- बैठकों में तुम्हारी मगजधुलाई (ब्रेनवाशिंग) हो सकती है! ...और मैं सावधान हो गया था... वहाँ से मैं जो भी, खासकर- देशभक्ति, और जितना भी सीख सकता था, उतना मैंने सीखा; इसके लिए मैं संघ का आभार मानता हूँ, मगर मैंने अपनी मगजधुलाई नहीं होने दी। जो कट्टर स्वयंसेवक हैं संघ के, वे हो सकता है, मेरी इन बातों का बुरा मान जायें, मगर मैं जानता हूँ कि मैं सही हूँ। मैं आज गलत को गलत व सही को सही कहने का साहस रखता हूँ- यह साहस कट्टर समर्थकों में नहीं पाया जाता- चाहे वे किसी भी विचारधारा, किसी भी दल के हों- वे बस येन-केन-प्रकारेण अपने दल, अपनी विचारधारा का बचाव करते रहते हैं; और जब करना मुश्किल हो जाता है, तुम्हारे दाग मेरे दाग से ज्यादा गहरे हैं की नीति पर उतर जाते हैं।
खैर, मैं जानता हूँ कि आज की तारीख में कोई भी दल देश का, देश की आम जनता का भला करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए मैं वर्तमान संसदीय प्रणाली को दस वर्षों के लिए निलम्बित करने की वकालत करता हूँ। 


 
("हमें यह पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के पुराने कार्यकर्ता ने भेजा है. यह पत्र राजनीति में आये स्खलन को दर्शाता है. यह पत्र उन तमाम ईमानदार और निष्ठावान राजनीतिक कार्यकर्ताओं की स्थिति का भी बयान करता है. हालांकि यह पत्र भाजपा के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे व्यक्ति का है, परंतु उन्होंने जो मुद्दे उठाये हैं, वह सभी राजनीतिक दलों में एक-सी है. हर दल में चापलूसों और अवसरवादियों को ही बढ.ावा मिलता है. पत्र लेखक विज्ञान में स्नातक हैं. छात्र जीवन से ही विद्यार्थी परिषद और संघ के सदस्य रहे हैं. महर्षि दयानंद-विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, गुरुजी गोलवलकर से प्रभावित हैं."- http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx )

मैं इरोम शर्मिला का समर्थन करता हूँ!



ठीक है, मैं सेना की, सैनिकों की इज्जत करता हूँ, बल्कि मैं खुद वायुसैनिक रह चुका हूँ; मगर मैं मणिपुर में 12 वर्षों से अनशनरत इरोम शर्मिला का समर्थन करता हूँ
मैं तेजपुर में रहा हूँ एकबार जब मैं काजीरंगा से लौट रहा था, जगह-जगह पर सेना के जवान हमारी बस को रोक कर चेकिंग कर रहे थे पुरूषों को वे बाहर आने को कहते थे और बड़े अदब से कहते थे- महिलायें अन्दर बैठी रहें मगर दो-चार चेकिंग के बाद जब महिलायें भड़कने लगीं, तब माजरा समझ में आया
मैं नागरिक क्षेत्रों में, नागरिकों के खिलाफ सैनिकों के इस्तेमाल का विरोध करता हूँ सैनिकों को बैरकों में ही रहना चाहिए और देश के दुश्मनों से लड़ना चाहिए- अपने नागरिकों से नहीं
अखबार कहता है कि मणिपुर सरकार सेना के दवाब में उस काले कानून को नहीं हटा रही है, जिसमें सेना को असीमित अधिकार मिला हुआ है मगर मुझे लगता है, दिल्ली की सरकार सही फैसले लेने में अक्षम है
अखबार के इस आलेख से एक उद्धरण-

"शर्मिला ने पिछले 12 वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वह कहती हैं कि मैंने माँ से वादा लिया है कि जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा न कर लूँ, तुम मुझसे मिलने मत आना, लेकिन जब शर्मिला की 78 साल की माँ से, बेटी से न मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है, तो उनकी आँखें छलक उठती हैं रुँधे गले से सखी देवी कहती हैं कि मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था, जब वह भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी, मैंने उसे आशीर्वाद दिया था मैं नहीं चाहती, मुझसे मिलने के बाद वह कमजोर पड़ जाए और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा न हो पाए यही वजह है कि मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती हम उसे जीतता देखना चाहते हैं"

सोमवार, 5 नवंबर 2012

“विशेष राज्य”




झारखण्ड बनने से पहले हम ‘बिहारी’ ही थे और खासकर मैं पिछले चार साल से बिहार में ही हूँ
      विशेष राज्य की माँग क्या है? हम ‘पिछड़े’ हुए हैं. हमें ‘आर्थिक मदद’ चाहिए- यही न?
      इस माँग को मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए तो यही लगता है कि यह माँग जायज है।
      मगर पता नहीं क्यों, मेरी अन्तरात्मा इस माँग से सहमत नहीं है। मुझे ऐसा लग रहा है कि एक ऐसा भिखारी भीख माँग रहा है, जिसके हाथ-पाँव के साथ-साथ उसके सारे अंग सही-सलामत हैं, जो उम्र से युवा है, जिसे कोई बीमारी नहीं है... बस उसका स्वाभिमान, उसकी खुद्दारी मर गयी है! वह मेहनत-मजदूरी नहीं करना चाहता, काम मिलने पर भी वह उसे नहीं करना चाहता, उसे तो बस भीख या मुफ्त में पैसे चाहिए।
      बात सिर्फ बिहार की नहीं है, देश भर के लोगों को मुफ्तखोर बनाने की साजिश चल रही है- आम लोगों के स्वाभिमान की बाकायदे हत्या की जा रही है। नीति है- लोगों को रोजगार मत दो, काम के अवसर पैदा मत करो- इससे तो वे खुद्दार हो जायेंगे, उन्हें सब्सिडी दो, उन्हें आरक्षण दो; उन्हें लाल कार्ड, पीला कार्ड, नीला कार्ड दो; उन्हें मुफ्त बिजली, मुफ्त साड़ी दो; उन्हें मुफ्त साइकिल, मुफ्त लैपटॉप दो; उन्हें लड़की होने पर मुफ्त में पैसे दो....
      जाहिर है, एक मुफ्तखोर व्यक्ति और समाज कभी भ्रष्ट सत्ता, शोषक पूँजीवाद और आततायी गुण्डाराज के खिलाफ सीना तानकर खड़ा नहीं हो सकता!
      मुझे केवल भाषण देने का शौक नहीं है... अगर मैं बिहार-झारखण्ड का नीति-निर्देशक बना, तो जो भी, जितने भी साधन-संसाधन यहाँ उपलब्ध है; जैसी भी, जितनी भी मानव शक्ति यहाँ उपलब्ध है, उन्हीं के बल पर इन दोनों राज्यों को समृद्ध बनाकर दिखा सकता हूँ!